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वैराग्य शतकम् - भाग - ३० (तीस)

27 मई 2022

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विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम ,*

*शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता !*

*आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः ,*

*कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः !! ४८ !!*

*अर्थात् :-* न तो हमने निष्कलंक विद्या पढ़ी और न धन कमाया ; न हमने शांत-चित्त से माता-पिता की सेवा ही की और न स्वप्न में भी दीर्घनायनी कामिनियों को गले से ही लगाया ! हमने इस जगत में आकर कव्वे की तरह पराये टुकड़ों की ओर ताक लगाने के सिवा क्या किया ?



*अपना भाव:---*

जो संसार में आकर न हरिभजन करते हैं , न विद्या-अध्ययन करते हैं , न धनोपार्जन करके सुख भोगते हैं और न संसार के दुखियों के दुःख ही दूर करते हैं , उनका इस दुनिया में आना वृथा है  |  

*किसी ने कहा है -*

*कहा कियो हम आय के, कहा करेंगे जाय ?*

*इतके भये न उतके , चाले मूल गवाँय !!*

*कहने का तात्पर्य यह है कि:-* विद्या पढ़ना, विद्या-बुद्धि से धन उपार्जन करना, सुख भोगना और माँ-बाप की सेवा करना अच्छा; पर खाली पेट भरने के लिए, कव्वे की तरह पराया मुंह ताकना अच्छा नहीं  | मुंह ही ताकना है तो उस परमात्मा का ताको, जो अभावशून्य है और सबका दाता है | उससे ही आपकी इच्छा पूरी होगी | यदि आप उसी का भरोसा करेंगे, तो वह आपके सब अभाव दूर करेगा, आपके दुखों में दुखी और आपके सुखों में सुखी होगा | उसके बिना आपकी भूख न मिटेगी |

*रहीम जी शायद सच ही कहते हैं -*

*रामचरण पहिचान बिन, मिटी न मनकी दौर !*

*जनम गंवाए बादिही, रटत पराये पौर !!*

भगवान् के चरण कमलों से *परिचय हुए बिना,* उनके पदपंकजों से *प्रेम हुए बिना,* मनुष्य के मन की दौड़ नहीं मिटती - मन की चंचलता नहीं जाती और स्थिरता नहीं होती | *मन के स्थिर हुए बिना भगवान् के भजन में मन नहीं लग सकता |* जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधू हो जाते हैं और भगवान् में मन नहीं लगाते - वे लोग पेट के लिए दर-दर चीख चिल्ला कर अपना दुर्लभ मनुष्य जीवन वृथा ही गंवाते हैं | वे मूर्ख इस बात को नहीं समझते, कि यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनाई से मिला है |  ऐसा अवसर जल्दी नहीं मिलने का | *यदि यह जन्म पेट की चिंता में गंवाया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद कहीं मनुष्य जन्म मिलेगा |* इससे तो यही अच्छा होता, कि वे संसार त्यागी बनने का ढोंग न रचकर, संसारी या गृहस्थ ही बने रहते | संसारी बने रहने से वे इस दुनिया के मिथ्या सुख-भोग तो भोग लेते | ऐसे ढोंगी दोनों तरफ से जाते हैं |

*गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -*

*काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान !*

*का पण्डित का मूरखै, दोनों एक समान !!*

*इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान् !*

*"तुलसी" अघवर के भये, ज्यों बघूर के पान !!*

*"तुलसी" पति दरबार में, कमी बस्तु कुछ नाहिं !*

*कर्महीन कलपत फिरत, चूक चाकरी मांहि !!*

*राम गरीबनिवाज हैं, राम देत जन जानि !*

*"तुलसी" मन परिहरत नहिं, घुरुबिनिया की बानि !!*



*अर्थात:-* काम, क्रोध, मद और लोभ - जब तक मन में रहते हैं, *तब तक पण्डित और मूर्ख में कोई फर्क नह्नि - दोनों ही समान हैं !* जो लोग केवल पुजने के लिए घर गृहस्थी को त्यागकर साधू बन जाते हैं, वे अगर घर में रहे तो माता-पिता की सेवा, आतिथ्य सत्कार, पिण्डदान, ब्राह्मण-भोजन, संतानोत्पत्ति और कन्यादान आदि गृहस्थकर्म कर सकते हैं; पर साधुवेश धारण करने से इन कामो को नहीं कर सकते | दूसरी ओर *साधू होकर ईश्वर भजन करना चाहिए,* पर चूंकि वे सच्चे साधू नहीं - काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ उनसे अलग नहीं - इसलिए उनका चित्त स्थिर नहीं होता | *चित्त के स्थिर न होने से, ईश्वर में भी उनका मन नहीं लगता |* पेट भरने के लिए वे घर-घर मारे-मारे फिरते हैं | *इस तरह वे न तो घर के रहते हैं न घाट के !* तुलसीदास जी कहते हैं, उनकी गति बवण्डरया बगूले के पत्ते की सी होती है, जो न तो आकाश में ही जाता है, न ज़मीन पर ही रहता है - अधपर में उड़ता फिरता है | *इस तरह जन्म गंवाना - मूर्खता नहीं तो क्या है ?* जो लोग मेहनत मज़दूरी करके कमा नहीं सकते और बैठे-बैठे मिलता नहीं; वे कुटुम्ब का पालन न कर सकने की वजह से साधू बन जाते हैं | फिर वे दर-दर टुकड़े मांगते हैं और ठोकरें खाते हैं | ईश्वर पर भी उनका भरोसा नहीं |  अगर परमात्मा पर भरोसा होता, तो वे ध्यानस्थ होकर उसी का जप करते और वह भी उनकी फ़िक्र करता | जो उसके भरोसे निर्जन और बियाबान जंगलों में भी जाकर बैठ जाते हैं, उनको वह वहीँ पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं | *वह (परमात्मा) उसका नाम न जपने वालों को भी पहुंचाता है; तब उसके ही भरोसे रहनेवालों और उसकी माला जपने वालों को वह कैसे भूल सकता है ?* वह सवेरे से शाम तक विश्व के प्राणियों को भोजन पहुंचाता है, विश्व का पालन करता है, *इसी से उसे विश्वम्भर कहते हैं |* वह हाथी को मन और कीड़ों को कन पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं |

*एक बार शहंशाह अकबरे आज़म को उसके विश्वम्भर होने में सन्देह हुआ |* उन्होंने एक कांच के बक्स में एक चींटी बन्द करवा दी | चींटी के उसमें बन्द किये जाने से पहले, उन्होंने स्वयं बक्स का कोना कोना देख लिया |  फिर उसमें चींटी बंद कराकर ताला लगा दिया और चाभी अपने पास रख ली | बक्स भी दिन रात अपने सामने ही रखा | *२४ घण्टे बाद जब बक्स खोला गया, तो चींटी के मुंह में एक चावल का दाना पाया गया |* बादशाह का संदेह दूर हो गया | *उन्होंने भी उसे विश्वम्भर मान लिया !*

*तुलसीदास जी कहते हैं:-* स्वामी के दरबार में किसी चीज़ का अभाव नहीं है | उनके दरबार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चरों पदार्थ मौजूद हैं | उनके भक्त जो चाहते हैं, उन्हें वही मिल जाता है |  उनके भक्तो की इच्छा होते ही ऋद्धि सिद्धि उनके क़दमों में प्रस्तुत हो जाती है, *पर शर्त यह है की उनके भक्तों का मन चलायमान न हो, उनका मन किसी दूसरी ओर न जाये |* जो लोग ईश्वर की चाकरी में चूकते हैं, स्थिर-चित्त होकर उसकी पूजा उपासना नहीं करते, मन को जगह जगह भटकाते हैं, वे कर्महीन दुःख पाते हैं, उनको मनवांछित पदार्थ नहीं मिलते | *सुखदाता को भूलने से सुख कैसे हो सकता है ?*

भगवान् दीनबंधु, दीन-दयाल और गरीबनेवाज हैं  वे दीनों के दुःख दूर करनेवाले और गरीबों की गरीबी या दरिद्रता मिटाने वाले हैं | *वे अपनों को अपना समझ कर, इस लोक और परलोक में पूर्ण सुखैश्वर्य देते हैं !* इस दुनिया में अर्थ, धर्म और काम देते हैं और मरने पर, उस दुनिया में, स्वर्ग या मोक्ष देते हैं |  *मतलब यह है कि जो ईश्वर की शरण में चले जाते हैं, ईश्वर अपने उन शरणागतों की इच्छाओं को उनके मन में इच्छा होते ही पूरी कर देता है |* पर चिन्ता तो यही है कि मन अपनी घुरुबिनिया की आदत नहीं छोड़ता अर्थात मन संसारी पदार्थों में जाए बिना नहीं रहता | *अगर मन संसारी पदार्थों में जाना छोड़ दे, तो दरिद्रता रहे ही क्यों ? सारे अभाव दूर हो जाएं |*



*किसी ने लिखा है :---*

*विद्या रहित कलंक, ताहि चित्त में नहिं धारी !*

*धन उपजायो नाहिं, सदा-संगी सुखकारी !!*

*मात-पिता की सेवा सुश्रुषा, नेक न कीन्हि !*

*मृगनयनी नवनारि, अंक भर कबहुँ न लीन्हि !!*

*योंही व्यतीत कीन्हों समय, ताकत डोल्यो काक ज्यों !*

*ले भाज्यों टूक पर हाथ तें, चंचल चोर चलाक ज्यों !!*

*××××××××××××××××××××××××××××××××××*

*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिंस्र भाग: !!*

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रचनाएँ
वैराग्य शतकम्
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इस कलिकाल में अनेक लोग *वैराग्य* के विषय में जानना चाहते हैं | *वैराग्य* क्या है ? इसके विषय में जानने के लिए हमें अपने ग्रन्थों का स्वाध्याय करने की आवश्यकता है | इन्हीं ग्रन्थों में एक है *राजा भर्तृहरि* (भरथरी) द्वारा लिखा गया *वैराग्य शतकम्* | इसको यदि ध्यान पूर्वक पढ़ लिया जाय तो *वैराग्य* का वास्तविक अर्थ स्वयं पता चल सकता है | आज के युग में इस शतक में कही गयी बातें कुछ लोगों को बेमानी ही लगेंगी परंतु सत्य यही है | *राजाभर्तृहरि* द्वारा १०० श्लोकों में रचित *वैराग्य शतकम्* के भावार्थ के साथ ही अपना भाव भी मिश्रित करके आप सबके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ ! *सुधी पाठकों* से आशा है कि अच्छी बातें चुनकर जो अच्छी न लगें उन्हें हमारी मूर्खता समझकर हमें अपना बनाये रखेंगे |
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वैराग्य शतकम् - भाग - छ:

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न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः !* *नृपसद्मनि नाम के वयं स्तनभारानमिता न योषितः !! २७ !!* *अर्थात् :-* न तो हम नट या बाज़ीगर हैं, न हम नचैये-गवैये हैं, न हमको चुगलखोरी आती

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वैराग्य शतकम् - भाग - सत्रह

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*परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा* *प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयक्लेशकलितम् !* *प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणि गुणे* *विमुक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते !! ३४ !!*

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22 जनवरी 2022
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*भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं* *मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया: भयम् !* *शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं* *सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैर

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वैराग्य शतकम् - भाग - बीस

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*अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां* *कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्;!* *यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां* *कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि !! ३६ !!* *अर्थात्:-* कमल-

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वैराग्य शतकम् - भाग - इक्कीस

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*भ्रातः कष्टमहो महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च* *तत्पाश्र्वे तस्य च साऽपि राजपरिषत्ताश्चन्द्रबिम्बाननाः !* *उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः* *सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपदं कालाय त

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वैराग्य शतकम् - भाग - बाईस

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*वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलुते* *समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः !* *इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतना-* *ग्दतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः !! ३८ !!* *अर्थात् :-

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वैराग्य शतकम् - भाग - तेईस

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*यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको* *यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः !* *इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन्द्वाविवाक्षौ* *कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिशारैः !! ३९ !!* *अ

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वैराग्य शतकम् - भाग - चौबीस

23 जनवरी 2022
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वैराग्य शतकम् - भाग - पच्चीस

23 जनवरी 2022
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*गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य*  *ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य !* *किं तैर्भाव्यम् मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः* *सम्प्राप्स्यन्ते जरठहरिणाः श्रृगकण्डूविनोदम् !!

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वैराग्य शतकम् - भाग - छब्बीस

23 जनवरी 2022
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*स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने* *सुखासीनाः शान्तध्वनिषु द्युसरितः !!* *भवाभोगोद्विग्नाः शिवशिवशिवेत्यार्तवचसः* *कदा स्यामानन्दोद्गमबहुलबाष्पाकुलदृशः !! ४२  !!*

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वैराग्य शतकम् - भाग - सत्ताईस

24 जनवरी 2022
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*शिरः शार्व स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं**महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् !**अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा**विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः !! ४४ !!**अर्थात्:-* देखिये, गङ्गा जी स्

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वैराग्य शतकम् - भाग - अट्ठाईस

24 जनवरी 2022
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*आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्**नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्त्मागतो वा !**योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढगूढाभिमान**क्षीवस्यान्तः करणकरिण: संयमालानलीलाम् !! ४६ !!**अर्थात्:-* ओ भाई ! मैं सारे सं

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वैराग्य शतकम् - भाग - उन्तीस

24 जनवरी 2022
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*ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखभोज**ये चालपत्वं दधति विषयक्षेपपर्यस्तबुद्धेः !**तेषामन्तः स्फुरितहसितं वासराणां स्मारेयं**ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्या निषण्णः !! ४७ !!**अर्थात् :-* वे दिन जो ध

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३० (तीस)

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विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम ,* *शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता !* *आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः ,* *कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः !! ४८ !!*

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३१ (इकतीस)

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३२ (बत्तीस)

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३३ (तैंतीस)

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*यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं* *सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम् !* *मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्* *न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः !! ५१ !!* *अर्थात्:-* स्वधीनतापूर्वक

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३४ (चौंतीस)

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*दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो* *वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः !* *जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं* *सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः !! ५३ !!* *अर्थात्:

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३५ (पैंतीस)

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*भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला*  *आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम् !* *लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं* *योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः !! ५४ !!*

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वैराग्य शतकम् - भाग - ३६ (छत्तीस)

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*पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-* *मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं !* *द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो* *मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्

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