विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम ,*
*शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता !*
*आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः ,*
*कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः !! ४८ !!*
*अर्थात् :-* न तो हमने निष्कलंक विद्या पढ़ी और न धन कमाया ; न हमने शांत-चित्त से माता-पिता की सेवा ही की और न स्वप्न में भी दीर्घनायनी कामिनियों को गले से ही लगाया ! हमने इस जगत में आकर कव्वे की तरह पराये टुकड़ों की ओर ताक लगाने के सिवा क्या किया ?
*अपना भाव:---*
जो संसार में आकर न हरिभजन करते हैं , न विद्या-अध्ययन करते हैं , न धनोपार्जन करके सुख भोगते हैं और न संसार के दुखियों के दुःख ही दूर करते हैं , उनका इस दुनिया में आना वृथा है |
*किसी ने कहा है -*
*कहा कियो हम आय के, कहा करेंगे जाय ?*
*इतके भये न उतके , चाले मूल गवाँय !!*
*कहने का तात्पर्य यह है कि:-* विद्या पढ़ना, विद्या-बुद्धि से धन उपार्जन करना, सुख भोगना और माँ-बाप की सेवा करना अच्छा; पर खाली पेट भरने के लिए, कव्वे की तरह पराया मुंह ताकना अच्छा नहीं | मुंह ही ताकना है तो उस परमात्मा का ताको, जो अभावशून्य है और सबका दाता है | उससे ही आपकी इच्छा पूरी होगी | यदि आप उसी का भरोसा करेंगे, तो वह आपके सब अभाव दूर करेगा, आपके दुखों में दुखी और आपके सुखों में सुखी होगा | उसके बिना आपकी भूख न मिटेगी |
*रहीम जी शायद सच ही कहते हैं -*
*रामचरण पहिचान बिन, मिटी न मनकी दौर !*
*जनम गंवाए बादिही, रटत पराये पौर !!*
भगवान् के चरण कमलों से *परिचय हुए बिना,* उनके पदपंकजों से *प्रेम हुए बिना,* मनुष्य के मन की दौड़ नहीं मिटती - मन की चंचलता नहीं जाती और स्थिरता नहीं होती | *मन के स्थिर हुए बिना भगवान् के भजन में मन नहीं लग सकता |* जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधू हो जाते हैं और भगवान् में मन नहीं लगाते - वे लोग पेट के लिए दर-दर चीख चिल्ला कर अपना दुर्लभ मनुष्य जीवन वृथा ही गंवाते हैं | वे मूर्ख इस बात को नहीं समझते, कि यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनाई से मिला है | ऐसा अवसर जल्दी नहीं मिलने का | *यदि यह जन्म पेट की चिंता में गंवाया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद कहीं मनुष्य जन्म मिलेगा |* इससे तो यही अच्छा होता, कि वे संसार त्यागी बनने का ढोंग न रचकर, संसारी या गृहस्थ ही बने रहते | संसारी बने रहने से वे इस दुनिया के मिथ्या सुख-भोग तो भोग लेते | ऐसे ढोंगी दोनों तरफ से जाते हैं |
*गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -*
*काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान !*
*का पण्डित का मूरखै, दोनों एक समान !!*
*इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान् !*
*"तुलसी" अघवर के भये, ज्यों बघूर के पान !!*
*"तुलसी" पति दरबार में, कमी बस्तु कुछ नाहिं !*
*कर्महीन कलपत फिरत, चूक चाकरी मांहि !!*
*राम गरीबनिवाज हैं, राम देत जन जानि !*
*"तुलसी" मन परिहरत नहिं, घुरुबिनिया की बानि !!*
*अर्थात:-* काम, क्रोध, मद और लोभ - जब तक मन में रहते हैं, *तब तक पण्डित और मूर्ख में कोई फर्क नह्नि - दोनों ही समान हैं !* जो लोग केवल पुजने के लिए घर गृहस्थी को त्यागकर साधू बन जाते हैं, वे अगर घर में रहे तो माता-पिता की सेवा, आतिथ्य सत्कार, पिण्डदान, ब्राह्मण-भोजन, संतानोत्पत्ति और कन्यादान आदि गृहस्थकर्म कर सकते हैं; पर साधुवेश धारण करने से इन कामो को नहीं कर सकते | दूसरी ओर *साधू होकर ईश्वर भजन करना चाहिए,* पर चूंकि वे सच्चे साधू नहीं - काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ उनसे अलग नहीं - इसलिए उनका चित्त स्थिर नहीं होता | *चित्त के स्थिर न होने से, ईश्वर में भी उनका मन नहीं लगता |* पेट भरने के लिए वे घर-घर मारे-मारे फिरते हैं | *इस तरह वे न तो घर के रहते हैं न घाट के !* तुलसीदास जी कहते हैं, उनकी गति बवण्डरया बगूले के पत्ते की सी होती है, जो न तो आकाश में ही जाता है, न ज़मीन पर ही रहता है - अधपर में उड़ता फिरता है | *इस तरह जन्म गंवाना - मूर्खता नहीं तो क्या है ?* जो लोग मेहनत मज़दूरी करके कमा नहीं सकते और बैठे-बैठे मिलता नहीं; वे कुटुम्ब का पालन न कर सकने की वजह से साधू बन जाते हैं | फिर वे दर-दर टुकड़े मांगते हैं और ठोकरें खाते हैं | ईश्वर पर भी उनका भरोसा नहीं | अगर परमात्मा पर भरोसा होता, तो वे ध्यानस्थ होकर उसी का जप करते और वह भी उनकी फ़िक्र करता | जो उसके भरोसे निर्जन और बियाबान जंगलों में भी जाकर बैठ जाते हैं, उनको वह वहीँ पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं | *वह (परमात्मा) उसका नाम न जपने वालों को भी पहुंचाता है; तब उसके ही भरोसे रहनेवालों और उसकी माला जपने वालों को वह कैसे भूल सकता है ?* वह सवेरे से शाम तक विश्व के प्राणियों को भोजन पहुंचाता है, विश्व का पालन करता है, *इसी से उसे विश्वम्भर कहते हैं |* वह हाथी को मन और कीड़ों को कन पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं |
*एक बार शहंशाह अकबरे आज़म को उसके विश्वम्भर होने में सन्देह हुआ |* उन्होंने एक कांच के बक्स में एक चींटी बन्द करवा दी | चींटी के उसमें बन्द किये जाने से पहले, उन्होंने स्वयं बक्स का कोना कोना देख लिया | फिर उसमें चींटी बंद कराकर ताला लगा दिया और चाभी अपने पास रख ली | बक्स भी दिन रात अपने सामने ही रखा | *२४ घण्टे बाद जब बक्स खोला गया, तो चींटी के मुंह में एक चावल का दाना पाया गया |* बादशाह का संदेह दूर हो गया | *उन्होंने भी उसे विश्वम्भर मान लिया !*
*तुलसीदास जी कहते हैं:-* स्वामी के दरबार में किसी चीज़ का अभाव नहीं है | उनके दरबार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चरों पदार्थ मौजूद हैं | उनके भक्त जो चाहते हैं, उन्हें वही मिल जाता है | उनके भक्तो की इच्छा होते ही ऋद्धि सिद्धि उनके क़दमों में प्रस्तुत हो जाती है, *पर शर्त यह है की उनके भक्तों का मन चलायमान न हो, उनका मन किसी दूसरी ओर न जाये |* जो लोग ईश्वर की चाकरी में चूकते हैं, स्थिर-चित्त होकर उसकी पूजा उपासना नहीं करते, मन को जगह जगह भटकाते हैं, वे कर्महीन दुःख पाते हैं, उनको मनवांछित पदार्थ नहीं मिलते | *सुखदाता को भूलने से सुख कैसे हो सकता है ?*
भगवान् दीनबंधु, दीन-दयाल और गरीबनेवाज हैं वे दीनों के दुःख दूर करनेवाले और गरीबों की गरीबी या दरिद्रता मिटाने वाले हैं | *वे अपनों को अपना समझ कर, इस लोक और परलोक में पूर्ण सुखैश्वर्य देते हैं !* इस दुनिया में अर्थ, धर्म और काम देते हैं और मरने पर, उस दुनिया में, स्वर्ग या मोक्ष देते हैं | *मतलब यह है कि जो ईश्वर की शरण में चले जाते हैं, ईश्वर अपने उन शरणागतों की इच्छाओं को उनके मन में इच्छा होते ही पूरी कर देता है |* पर चिन्ता तो यही है कि मन अपनी घुरुबिनिया की आदत नहीं छोड़ता अर्थात मन संसारी पदार्थों में जाए बिना नहीं रहता | *अगर मन संसारी पदार्थों में जाना छोड़ दे, तो दरिद्रता रहे ही क्यों ? सारे अभाव दूर हो जाएं |*
*किसी ने लिखा है :---*
*विद्या रहित कलंक, ताहि चित्त में नहिं धारी !*
*धन उपजायो नाहिं, सदा-संगी सुखकारी !!*
*मात-पिता की सेवा सुश्रुषा, नेक न कीन्हि !*
*मृगनयनी नवनारि, अंक भर कबहुँ न लीन्हि !!*
*योंही व्यतीत कीन्हों समय, ताकत डोल्यो काक ज्यों !*
*ले भाज्यों टूक पर हाथ तें, चंचल चोर चलाक ज्यों !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिंस्र भाग: !!*