*भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला*
*आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम् !*
*लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं*
*योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः !! ५४ !!*
*अर्थात्:-* देहधारियों के भोग - विषय सुख - सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है | इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ |
*आपना भाव:--*
*संसार और संसार के सारे पदार्थ आसार और नाशवान हैं |* यहाँ जो दिखाई देता है वह स्थिर न रहेगा | यह जो अथाह जल से भरा हुआ समन्दर दिखाई देता है, किसी दिन मरुस्थल में परिणत हो जाएगा; पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी ! यह बगीचा जो आज इंद्र के बगीचे की बराबरी कर रहा है, जिसमें हज़ारों तरह के फलों के वृक्ष लगे रहते हैं, हौज़ बने हुए हैं, छोटी छोटी नहरे कटी हुई हैं, संगमरमर और संगे-मूसा के चबूतरे बने हुए हैं, बीच में इन्द्रभवन के जैसा महल खड़ा है, किसी दिन उजाड़ हो जाएगा; इसमें स्यार, लोमड़ी और जरख प्रभृति पशु बसेरा लेंगे | यह जो सामने महलों की नगरी दीखती है, जिसमें हज़ारों दुमंजिले, तिमंज़िले, चौमंज़िले और सतमंज़िले आलिशान मकान खड़े हुए आकाश को चूम रहे हैं, जहाँ लाखों मनुष्यों के आने जाने और काम धंधा करने के कारण पीठ-से-पीठ छिलती है, किसी दिन यहाँ घोर भयानक वन हो जाएगा | मनुष्यों के स्थान में सिंह, बाघ, हाथी, गैंडे, हिरन और स्यार प्रभृति पशु आ बसेंगे और तो क्या - यह सूर्य, जो अपने तेज से तीनो लोकों प्रकाश फैलता है, अंधकार रूप हो जाएगा ! यह अमृत से पूर्ण सुधाकर - चन्द्रमा भी शून्य हो जायेगा , इसकी शीतल चांदनी न जाने कहाँ विलीन हो जाएगी ? हिमालय और सुमेरु जैसे पर्वत एक दिन मिटटी में मिल जायेंगे | यह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र भी शून्य हो जाएंगे । सारा जगत नाश हो जायेगा | ये स्त्री, पुत्र, नाते-रिश्तेदार न जाने कहाँ छिप जायेंगे ? युगों की सहस्त्र चौकड़ियों का ब्रह्माका एक दिन होता है , उस दिन के पूरे होते ही प्रलय होती है | तब इस जगत की रचना करने वाले ब्रह्मा भी नष्ट हो जाते है | आज तक अनगिनत ब्रह्मा हुए , उन्होंने जगत की रचना की और अंत में स्वयं नष्ट हो गए | जब हमारे पैदा करनेवाले का यह हाल है, तब हमारी क्या गिनती ? *या काया -* जिसे मनुष्य अपना सर्वस्व समझता है, जिसे मल-मल कर धोता है, इत्र फुलेलों से सुवासित करता, नाना प्रकार के रत्नजड़ित मनोहर गहने पहनता, कष्ट से बचने और सुखी होने के लिए नरम-नरम मखमली गद्दों पर सोता, पैरों को तकलीफ से बचाने के लिए जोड़ी-गाडी या मोटर में चढ़ता है - एक दिन नाश हो जाएगी; पांच तत्वों से बानी हुई काया, पांच तत्वों में ही विलीन हो जाएगी | *जिस तरह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद क्षणस्थायी होती है; उसी तरह यह काया क्षणभंगुर है !* दीपक और बिजली का प्रकाश आता जाता दीखता है, पर इस काया का आदि-अन्त नहीं दीखता , यह काया कहाँ से आती है और कहाँ जाती है | *जिस तरह समुद्र में बुद्बुदे उठते और मिट जाते हैं; उसी तरह शरीर बनते और क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं !* सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चञ्चल और अस्थिर है ! *जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पड़ गयी; अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणी को नष्ट कर देती है |*
जिस तरह जल की तरंगे उठ उठ कर नष्ट हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी आकर क्षणभर में विलीन हो जाती है | जिस तरह बिजली चमक कर गायब हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी दर्शन देकर गायब हो जाती है ! हवा और चपला को रोकना अत्यन्त कठिन है, पर शायद कोई उन्हें रोक सके; आकाश का चूर्ण करना अतीव कठिन है, पर शायद कोई आकाश को भी चूर्ण करने में समर्थ हो जाये; समुद्र को भुजाओं से तैरना बहुत कठिन है, पर शायद कोई तैरकर उसे भी पार कर सके; इतने असम्भव काम शायद को सामर्थ्यवान कर सके, पर चञ्चला लक्ष्मी को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता ! *जिस तरह अंजलि में जल नहीं ठहरता; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास नहीं ठहरती !*
जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषय-भोग तथा आयु चञ्चल और क्षणस्थायी है; उसी तरह यौवन या जवानी भी क्षणस्थायी है ! *जवानी आते दीखती है, पर जाते मालूम नहीं होती ! हवा की अपेक्षा भी तेज़ चाल से दिन-रात होते है और उसी तेज़ी से जवानी झट ख़त्म हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है !* उस समय विस्मय होने लगता है ! यह शरीर तभी तक सुन्दर और मनोहर लगता है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता , बुढ़ापा आते ही वह उछल-कूद, वह अकड़-तकड़, वह चमक-दमक, वह सुर्खी, वह छातियों का उभार, वह नयनों का रसीलापन न जाने कहाँ गायब हो जाता है ! असल में यौवन के लिए बुढ़ापा, राहु है ! *जिस तरह चन्द्रमा को जब तक राहु नहीं ग्रसता, तभी तक प्रकाश रहता है; उसी तरह जब तक बुढ़ापा नहीं आता, तभी तक शरीर का सौंदर्य और रूप-लावण्य बना रहता है !* प्राणियों को बाल्यावस्था के बाद युवावस्था और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अवश्य आती है ! युवावस्था सदा नहीं रहती; *अच्छी तरह गहरा विचार करने से जवानी क्षणभर की मालूम होती है |*
संसार में जो नाना प्रकार के मनभावन पदार्थ दिखाई देते है, ये सभी नाशमान है ! ये सब वास्तव में कुछ भी नहीं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गयी है ! *मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं, ज्ञानी नहीं !*
*"सुभाषितावली" में लिखा है -*
*चला विभूतिः क्षणभंगी यौवनं कृतान्तदन्तान्तर्वर्त्ति जीवितं !*
*तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितं !!*
*अर्थात्:-* विभूति चञ्चल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन काल के दांतो में है; तो भी लोग परलोक साधन की परवाह नहीं करते | मनुष्यों की यह चेष्टा विस्मयकारक है |
*यह संसार दो स्थानों के बीच का स्थान है | यात्री यहाँ आकर क्षणभर के लिए आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं !* ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना, एक-दुसरे की मुहब्बत के फन्दे में फंसना, सचमुच ही दुःखोत्पादक है ! समझदार लोग, मुसाफिरों से दिल नहीं लगाते - उनसे प्रेम नहीं करते - उन्हें अपना-पराया नहीं समझते ! न उन्हें किसी से राग है न द्वेष ! वे सबको समदृष्टि या एक नज़र से देखते हुए सहाय्य करते और उनका कष्ट निवारण करते हैं, पर उनसे प्रीती नहीं करते; लेकिन मूर्ख लोग स्त्री-पुत्र और माता-पिता प्रभृति को अपना प्यारा समझते और दूसरों को पराया समझते हैं ! *इस जगत में न कोई अपना है न कोई पराया ! यह जगत एक वृक्ष है ! इस पर हज़ारों लाखों पक्षी भिन्न भिन्न स्थानों से आकर रात को बसेरा लेते और सवेरे ही अपने अपने स्थानों को उड़ जाते हैं* भिन्न भिन्न स्थानों से आये हुए पक्षियों को क्या रातभर के साथ के लिए आपस में नाता जोड़ना चाहिए ? कदापि नहीं !
*कहने का तात्पर्य है कि :--* ज़रा भी समझ रखनेवाले समझ सकते हैं कि प्राणियों के शरीर के भीतर कोई ऐसी चीज़ है, जिसके रहने से प्राणी चलते-फिरते, काम-धंधा करते और ज़िंदा समझे जाते हैं | जिस सनय वह चीज़ शरीर से निकल जाती है, उस सनय मनुष्य मुर्दा हो जाता है, उस समय वह न तो चल-फिर सकता है, न देख-सुन या कोई और काम कर सकता है | जिस चीज़ के प्रकाश से शरीर में प्रकाश रहता है, जिसके बल से यह काम-धंधे करता और बोलता चालता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं | *हमारा शरीर हमारे आत्मा के रहने का घर है !* जिस तरह मकान में मोरी, परनाले, खिड़की और जंगले होते हैं; उसी तरह आत्मा के रहने के इस शरीर रुपी घर में भी मोरी और परनाले वगैरह हैं ! *आँख, कान, नाक और मुंह प्रभृति इस शरीर रुपी घर के द्वार और गुदा-लिङ्ग या योनि वगैरह मोरी-परनाले हैं !* शरीर के करोड़ों छेद इस मकान के जंगले और खिड़कियां हैं | मतलब यह कि, यह शरीर आत्मा या जीव के बसने का घर है | यह घर मिटटी और जल प्रभृति पञ्च-तत्वों से बना हुआ है इस घर के बनाने वाला कारीगर परमात्मा है |
*जिस तरह परमात्मा ने आत्मा के रहने के लिए पांच तत्वों से बने यह शरीर रुपी घर बना दिया है; उसी तरह हमने भी अपने इस आत्मा के शरीर की रक्षा के लिए - मेह पानी और धूप आदि से बचने के लिए - मिटटी या ईंट पत्थर प्रभृति के मकान बना लिए है !* हमारे बनाये हुए ईंट पत्थरों के मकान सौ-सौ, दो-दो सौ और पांच-पांच सौ बरसों तक रह सकते हैं , हज़ार हज़ार बरस से ज्यादा मुद्दत के बने हुए मकान आज तक खड़े हुए हैं , पर हमारे आत्मा के रहने का पञ्च तत्वों से बना हुआ मकान इतना मजबूत नहीं - वह क्षणभर में ढह जाता है | इसलिए इस आत्मा के मकान - शरीर - को महात्मा लोग बालू का मकान कहते हैं । क्योंकि बालू का मकान इधर बनता और उधर गिर पड़ता है | उसकी उम्र पल भर की भी नहीं |
*लक्ष्मी क्षणभंगुर है !* समुद्र में जिस तरह तरंगे उठती और विलीन हो जाती हैं; उसी तरह लक्ष्मी से विषय-भोग उपजते और नष्ट हो जाते हैं आ *जिस तरह चपला की चमक स्थिर नहीं रहती; उसी तरह भोग भी स्थिर नहीं रहते !* विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है ! तृष्णा के उदय होने से पुरुष के सब गुण नष्ट हो जाते हैं ! *दूध में मधुरता उसी समय तक रहती है, जब तक की उसे सर्प नहीं छूता; पुरुष में गुण भी उसी समय तक रहते हैं, जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता !* अतः बुद्धिमानो ! अनित्य, नाशमान एवं दुखों कि खान, विष-समान विषयों से दूर रखो; क्योंकि इनमें ज़रा भी सुख नहीं | जब तक विषय-भोग रहेंगे तभी तक आप सुखी रहेंगे; पर एक-न-एक दिन उनसे आप का वियोग अवश्य होगा; उस समय आप तृष्णा कि आग में जलोगे, बारम्बार जन्म लोगे और मरोगे; अतः इन्द्रियों को वश में करो और एकाग्र चित्त से परमात्मा का भजन करो; क्योंकि विषयों को भोगने से नरकाग्नि में जलोगे और जन्म-मरण के घोर संकट सहोगे; पर परमात्मा के भजन या योगसाधन से नित्य सुख भोगते हुए परमानन्द में लीन हो जाओगे |
*तन को योगी सब करते हैं, पर मन को कोई ही योगी करता है ! अगर मन योगी हो जाय, तो सहज में सिद्धि मिल जाय !* लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, जटा रखा लेते हैं, हाथ में कमण्डल और बगल में मृगछाला ले लेते हैं - इस तरह योगी बन जाते हैं, पर मन उनका संसारी भोगो में ही लगा रहता है; इसलिए उन्हें सिद्धि नहीं मिलती - ईश्वर दर्शन नहीं होता | अगर वे लोग कपडे चाहें गृहस्थों के ही पहनें, गृशस्थों की तरह ही खाएं-पीएं; पर मन को एक परमात्मा में रक्खें, तो निश्चय ही उन्हें भगवान् मिल जाएं | *जो मनुष्य गृशस्थ आश्रम में रहता है, पर उसमें आसक्ति नहीं रखता, यानी जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति निश्चय ही हो जाती है; पर जो सन्यासी होकर विषयों में आसक्ति रखता है उसकी मोक्ष नहीं होती !* राजा जनक गृहस्थी में रहते थे; सब तरह के राजभोग भोगते थे; पर भोगों में उनकी आसक्ति नहीं थी, इसी से उनकी मुक्ति हो गयी |
*कुल मिलाकर मैं यही समझ पाया हूँ कि* विषय-भोग, आयु और यौवन को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करो - तो जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाय और परमानन्द की प्राप्ति हो जाय |
*किसी ने कहा है:--*
*जैसे चञ्चल चञ्चला, त्योंही चञ्चल भोग !*
*तैसेही यह आयु है, ज्यों घट पवन प्रयोग !*
*ज्यों घट पवन प्रयोग, तरल त्योंही यौवन तन !*
*विनस न लगत न वार, गहत ह्वै जात ओसकन !*
*देख्यौ दुःसह दुःख, देहधारिन को ऐसे !*
प
*साधत सन्त समाधि, व्याधि सों छूटत जैसे !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" पञ्चत्रिंस्रो भाग: !!*