*दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो*
*वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः !*
*जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं*
*सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः !! ५३ !!*
*अर्थात्:-* मालिक को राज़ी करना कठिन है | राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं | इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं , उधर हम बड़े भारी पद - मोक्ष के अभिलाषी हैं | बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है | इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है |
*अपना भाव:--*
*इस संसार वैसे तो धर्म की साधना ही बड़ी कठिन परंतु सभी धर्मों में सेवा-धर्म सबसे कठिन है !* हज़ारों प्रकार की सेवाएं करने , अनेक प्रकार की हाँ में हाँ मिलाने , दिन को रात और रात को दिन कहने , तरह तरह की खुशामदें करने से भी मालिक कभी संतुष्ट नहीं होता | राजाओं के दिल अशिक्षित घोड़ों की तरह चंचल होते हैं | उनके चित्त स्थिर नहीं रहते; ज़रा सी देर में वे प्रसन्न होते हैं और ज़रा सी देर में अप्रसन्न हो जाते हैं; क्षणभर में गांव के गांव पर कृपादृष्टि कर देते हैं और क्षणभर में सूली पर चढ़वाते हैं | *इसलिए राजसेवा में बड़ा खतरा है |* उसमें ज़रा भी सुख नहीं, यहाँ तक की जान की भी खैर नहीं है | *एक तरफ तो हमारी इच्छाओं और हमारे मनोरथों की सीमा नहीं है दूसरी ओर हम परमपद के अभिलाषी हैं , इसलिए यहाँ भी मेल नहीं खाता |* बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बल का नाश करता है तथा मृत्यु सिर पर मंडराती है | *ऐसी दशा में मित्रवर ! कहीं सुख नहीं है !* अगर सुख - सच्चा सुख चाहते हो, तो परमात्मा का भजन करो | उससे आपके परलोक और इहलोक दोनों सुधरेंगे, आप जन्म-मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर मोक्ष-पद पाएंगे | *सारांश यह है कि सच्चा और नित्य सुख केवल वैराग्य और ईश्वर भक्ति में है |*
*गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -*
*"तुलसी" मिटै न कल्पना, गए कल्पतरु-छाँह !*
*जब लगि द्रवै न करि कृपा, जनक-सुता को नाह !!*
*हित सन हित-रति राम सन, रिपु सन वैर विहाय !*
*उदासीन संसार सन, "तुलसी" सहज सुभाय !!*
*अर्थात्:-* मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाय, जब तक सीतापति की कृपा न होगी तब तक उसके दुखों का नाश नहीं हो सकता; इसलिए शत्रुता-मित्रता छोड़, संसार से उदासीन हो, भगवान् से प्रीति करो |
*अपना भाव :--*
देवराज इन्द्र के बगीचे में एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी छाया में जाकर मनुष्य या देवता जो चीज़ चाहते हैं, वही उनके पास, आप से आप आ जाती है | *उसी वृक्ष को "कल्पवृक्ष" कहते हैं |* तुलसीदास जी कहते हैं, *जब तक जानकीनाथ रामचन्द्र जी दया करके प्रसन्न न हों तब तक, मनुष्य की कल्पना कल्पवृक्ष की छाया में जाने से भी नहीं मिट सकती |* जप, तप, तीर्थ, व्रत, शम, दम, दया, सत्य, शौच और दान बिना काम अगर मन में वासना रखकर किये जाते हैं; यानी करनेवाला यदि उनका फल या पुरस्कार चाहता है, तो उसे स्वर्गादि मिलते हैं | *स्वर्ग में जाने से मनुष्य का आवागमन - इस दुनिया में आना और यहाँ से फिर जाना - पैदा होना और मरना - नहीं बन्द हो सकता |*
कहा गया है *"पुण्य क्षीणे मृत्युलोके"* पुण्यों के क्षीण होते ही फिर स्वर्ग से मृत्युलोक में आना पड़ता है, पर मनुष्य का असली लक्ष्य पूरा नहीं होता; *अर्थात् उसे परमपद या मोक्ष नहीं मिलता |* इसलिए मनुष्य को निष्काम कर्म करने चाहिए । *"गीता" में भी यही बात भगवान् कृष्ण ने कही है |* बहुत लिखने से क्या - *भगवान् की भक्ति सर्वोपरि है | भगवान् की भक्ति से जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओं से भी नहीं हो सकता |*
*हमारे शास्त्रों में लिखा है:--*
*पठित सकल वेदश्शास्त्रपारंगतो वा*
*यम नियम पारो वा धर्म्मशास्त्रार्थकृद्वा !*
*अटित सकल तीर्थव्राजको वाहिताग्निर्नहि*
*हृदि यदि रामः सर्वमेतत्वृथा स्यात् !!*
*अर्थात् :-* चाहे सारे वेद-शास्त्रों को पढ़लो, चाहे यम नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्र को मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर लो, *यदि आपके हृदय में राम नहीं हैं तो सब वृथा है*
इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं, कि दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनो से दुश्मनी छोड़कर एवं संसार से उदासीन होकर भगवान् से प्रीति करो | मतलब यह है, कि *न किसी से राग करो और न किसी से द्वेष; सबको उदासीन होकर देखो । जब आपका दिल राज-द्वेषादि से शुद्ध होगा - इस दुनिया में न कोई आपका प्यारा होगा और न कोई कुप्यारा; तभी आपका दिल एक भगवान् में लगेगा |*
*महात्मा सुंदरदास जी ने कहा है :+-*
*काहे कूँ फिरत नर! दीन भयो घर-घर !*
*देखियत, तेरो तो आहार इक सेर है !*
*जाको देह सागर में, सुन्यो शत योजन को !*
*ताहू कूँ तो देत प्रभु, या में नहिं फेर है !!*
*भूको कोउ रहत न, जानिये जगत मांहि !*
*कीरी अरु कुञ्जर, सबन ही कूँ देत है !!*
*"सुन्दर" कहत, विश्वास क्यों न राखे शठ ?*
*बेर-बेर समझाय, कह्यौ केती बेर है !!*
*अर्थात्:-* हे पुरुष ! तू दीन होकर क्यों घर-घर मारा-मारा फिरता है ? देख, तेरा पेट तो एक सेर आते में भर जाता है | सुनते हैं, समुद्र में जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है, उसको भी प्रभु भोजन पहुंचाते हैं, इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं | संसार में कोई भी भूखा नहीं रहता | वह जगदीश चींटी और हाथी सबका पेट भरते हैं | अरे शठ ! विश्वास क्यों नहीं रखता ? *सुन्दरदास कहते हैं :-* मैंने तुझे यह बात बारम्बार कितनी बार नहिं समझाई है |
*आगे पुन: कहते हैं:--*
*काहे कूँ दौरत है दशहुं दिशि ?*
*तू नर ! देख कियो हरिजू को !*
*बैठी रहै दूरिके मुख मूंदि*
*उघारत दांत खवाइहि टूको !!*
*गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन,*
*होइ रह्यो तबहिं जड़ मूको !*
*"सुन्दर" क्यूँ बिल्लात फिरे अब?*
*राख ह्रदय विश्वास प्रभु को !!*
*अर्थात्:-* अरे ! तू दशों दिशाओं में क्यों भागता फिरता है ? तू भगवान् के किये कामों का ख्याल कर | देख, जब तू मुंह बन्द किये हुए छिपा बैठा था, तब भी तुझे खाने को पहुँचाया और जब तेरे दांत आ गए तब भी तेरे मुंह खोलते ही खाने को टुकड़ा दिया | जिस प्रभु ने तेरी गर्भावस्था से ही - जबकि तू जड़ और मूक था - पालना की है, वही क्या अब तेरी खबर न लेगा ? *सुन्दरदास जी कहते हैं:-* तू क्यों चीखता फिरता है ? भगवान् का भरोसा रख; वही प्रभु अब भी तेरी पालना करेंगे |
*अपना भाव:-*
बुद्धिमान को दुनिया के घमण्डी लोगों की खुशामद छोड़, केवल उसकी खुशामद और नौकरी करनी चाहिए, जिसके दिल में न घमण्ड है और न क्रूरता | जो उसकी शरण में जाता है, उसी की वह अवश्य प्रतिपालना करता और उसके दुःख दूर करने को हाज़रा हुज़ूर खड़ा रहता है | *मनुष्य ! तेरी ज़िन्दगी अढ़ाई मिनट की है ! इस अढ़ाई मिनट की ज़िन्दगी को वृथा बरबाद न कर !* इसे ख़तम होते देर न लगेगी | राजाओं और अमीरों की सेवा-टहल और लल्लो-चप्पो में यह शीघ्र ही पूरी हो जाएगी और उनसे तेरी कामना भी सिद्ध न होगी | *यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीश की ही चाकरी करेगा; तो निश्चय ही तेरा भला होगा - तेरे दुखों का अवसान हो जायेगा; तुझे फिर जन्म लेकर घोर कष्ट न सहने होंगे; तुझे नित्य और चिरस्थायी शान्ति मिलेगी |* अरे ! तू सारी चतुराई और चालाकियों को छोड़कर, एक इस चतुराई को कर; क्योंकि यह चातुरी सच्ची चातुरी है | *जो जगदीश को प्रसन्न कर लेता है, वही सच्चा चतुर है |*
*हमारे शास्त्र कहते हैं:-*
*या राका शशि-शोभना गतघना सा यामिनी यामिनी !*
*या सौन्दर्य्य-गुणान्विता पतिरता सा कामिनी कामिनी !!*
*या गोविन्द-रस-प्रमोद मधुरा सा माधुरी माधुरी !*
*या लोकद्वय साधनी तनुभृतां सा चातुरी चातुरी !!*
*अर्थात्:-* मेघावरण शून्य पूर्ण-चन्द्रमा से शोभायमान जो रात्रि है, वही रात्रि है | जो सुंदरी है, गुणवती है और पति में भक्ति रखनेवाली है, वही कामिनी है | कृष्ण के प्रेम के आनन्द से मनोहर मधुरता ही मधुरता है | *शरीरधारियों का दोनों लोक में उपकार करनेवाली जो चतुराई है, वही चतुराई है |*
*अन्त में कहना है :--*
*नृप-सेवा में तुच्छ फल, बुरी काल की व्याधि !*
*अपनों हित चाहत कियो, तौ तू तप आराधि !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" चतुस्त्रिंस्रो भाग: !!