*खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै: ,*
*निगृह्यान्तर्वास्यं हसितमपिशून्येन मनसा !*
*कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियामञ्जलिरपि ,*
*त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्त्तयसि माम् !! ६ !!*
*अर्थात् :-* मैंने दुष्टों की सेवा करते हुए उनके व्यंग और ठट्ठेबाज़ी सहन की भीतर से, दुःख से आये हुए आंसू रोके और उद्विग्न चित्त से उनके सामने हँसता रहा ! उन हंसने वालों के सामने चित्त को स्थिर करके हाथ भी जोड़े | *हे झूठी आशा* ! क्या अभी और भी नाच नचाएगी ?
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*आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम् ,*
*व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते !*
*दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते ,*
*पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् !! ७ !!*
*अर्थात् :- सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की ज़ीवन नित्य घटता जाता है | समय निरन्तर भागा जाता है परंतु व्यवसाय या दैनिक कारियों में व्यस्त रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता | लोगों को पैदा होते , बूढ़े होते , विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय नहीं होता | इससे मालूम होता है कि मोहमाया , प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है |
*किसी ने खूब कहा है :-*
*सुबह होती है शाम होती है !*
*यों ही उम्र तमाम होती है !!*
*अपना भाव :-*
विचार करके देखने से बड़ा विस्मय होता है कि दिन और रात कैसे तेजी से चले जाते हैं | जिनको कोई काम नहीं है अथवा दुखिया है उन्हें तो ये बड़े भारी प्रतीत होते हैं , काटे नहीं कटते, एक एक क्षण एक एक वर्ष की भाँति बीतता है | पर जो व्यवसाय या नौकरी में लगे हुए हैं, उनका समय हवा से भी अधिक तेजी से उड़ा चला जा रहा है | अर्थात् व्यवसाय या धंधे में लगे रहने के कारण उन्हें मालूम नहीं होता | वे अपने कामों में भूले रहते हैं और मृत्युकाल तेजी से नजदीक आता जाता है |
*शंकराचार्य जी ने 'मोहमुद्गर' में कहा है :-*
*दिन यामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः !*
*कालः क्रीडति गच्छत्यायु तदपि न मुञ्चत्याशावायुः !!*
*अर्थात् :-* दिन-रात , सवेरे-सांझ , शीत और वसंत आते और जाते हैं , काल क्रीड़ा करता है , जीवनकाल चला जाता है , तो भी संसार आशा को नहीं छोड़ता !
*लिखा भी है कि :--*
*जीर्यन्ति जीर्यत: केशा , दन्ता जीर्यन्ति जीर्यत: !*
*धनाशा जीविताशा च , जीर्यतो$पि न जीर्यत: !!*
*अर्थात् :-* समय पर मनुष्य के केश , दाँत एवं शरीर भी जीर्ण - शीर्ण हो जाते हैं परंतु धन एवं जीवन की आशा कभी भी जीर्ण नहीं होती !
*शिक्षा:-* मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य देह को यों ही नष्ट न करो | देखो ! सर पर काल नाच रहा है एक सांस का भी भरोसा न करो | जो सांस बाहर निकल गया है, वह वापस आवे या न आवे इसलिए आत्ममुग्धता और बेहोशी छोड़कर, अपनी काया को क्षणभंगुर समझकर, दूसरो की भलाई करो और अपने सिरजनहार में मन लगाओ; क्योंकि नाता उसी का सच्चा है; और सब नाते झूठे हैं |
*सत्य ही कहा है -*
*माया सगी न मन सगा, सगा न यह संसार !*
*इस जग में या जीव को, सगा सो सिरजनहार !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" चतुर्थ भाग: !!*