*यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको*
*यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः !*
*इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन्द्वाविवाक्षौ*
*कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिशारैः !! ३९ !!*
*अर्थात्:-* जिस घर में पहले अनेक लोग थे, उसमें अब एक ही रह गया है | जिस घर में एक था, उसमें अनेक हो गए, पर अन्त में एक भी न रहा | इससे मालूम होता है कि काल देवता, अपनी पत्नी काली के साथ, संसार रुपी चौपड़ में, दिन-रात रुपी पासों को लुढ़का लुढ़का कर और इस जगत के प्राणियों की गोटी बना बनाकर, खेल रहा है |
*अपना भाव:-*
*यह संसार निरंतर परिवर्तनशील है ! *राजा भर्तृहरि जी* कह रहे हैं कि यहाँ सदा के लिए कोई नहीं आया है क्योंकि कभी जिस घर में पहले पुत्र, पौत्र, पुत्र-वधु, पौत्र-वधु, पुत्री, दोहिते और दोहिती प्रभृति अनेक लोग थे, आज वह सूना सा हो गया है | उसमें आज एक ही आदमी नज़र आता है | जिस घर में पहले एक आदमी था, उसका कुटुम्ब इतना बढ़ा कि सैकड़ों हो गए; पर आज देखते हैं कि उसमें एक भी नहीं है | घर का ताला लगा है, भीतर लम्बी लम्बी घास उग आयी है, दीवारे गिर रही हैं, छतें चू रही हैं और ईंटे दांत दिखा रही हैं | अब उस घर में चमगीदड, उल्लू, सांप और बिच्छू प्रभृति रहते हैं | इसीलिए कहा गया है :- *इस धरा का धरा पर धरा रह जायेगा*
*कबीरदास जी कहते हैं -*
*ऊँचा महल चिनाईया, सुबरन कली बुलाय !*
*ते मन्दिर खाली परे, रहे मसाना जाय !!*
*मलमल खासा पहरते, खाते नागर पान !*
*टेढ़े होकर चालते, करते बहुत गुमान !"*
*महलन मांहि पौढ़ते, परिमल अंग लगाय !*
*ते सपने दीसे नहीं, देखत गए बिलाय !"*
*अर्थात्:-* जिन्होंने ऊँचे ऊँचे महल चिनवाए थे और उनमें सुनहरी काम करवाए थे, वे आज शमशान में चले गए हैं और उनके बनवाये हुए महल सूने पड़े हैं | जो मलमल और खासा पहनते थे, नागर-पान चबाते थे, अकड़-अकड़ कर टेढ़े-टेढ़े चलते थे, अभिमान के नशे में चूर हुए जाते थे और बदन में इत्र, फुलेल और सेन्ट प्रभृति लगाकर महलों में सोते थे, वे स्वप्न में भी नहीं दीखते | देखते-देखते न जाने कहाँ गायब हो गए |
*इसीलिए कहा जाता है कि :-*
*बहुत रहत जिहिं धाम, तहँ एकहि को राखत !*
*एक रहत जिहिं ठौर, तहँ बहुतहि अभिलाषत !!*
*फेर एकहू नाहि, करी तहँ राज दुराजी !*
*काली के संग काल, रची चौपड़ कि बाजी !!*
*दिनरात उभय पास लिए, इहि विधिसौँ क्रीड़ा करत !*
*सब प्राणी सोबत सार ज्यों, मिलत चलत बिछुरत मरत !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रिबिंश भाग: !!*