*न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्*
*संसारविच्छित्तये !*
*स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्*
*र्धर्मोऽपि नोपार्जितः !!*
*नारीपीनपयोधरोरुयुगलं ,*
*स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं !*
*मातुः केवलमेव यौवनवनश् ,*
*छेदे कुठारा वयम् !! ११ !!*
*अर्थात् :-* हमने संसार बन्धन के काटने के लिए यथाविधि ईश्वर के चरणों का ध्यान नहीं किया ! हमने स्वर्ग के दरवाजे खुलवाने वाले धर्म का सञ्चय भी नहीं किया और हमने स्वप्न में भी कठोर कुचों का आलिङ्गन नहीं किया ! हम तो अपनी माँ के यौवन रुपी वन के काटने के लिए कुल्हाड़े ही हुए !
*अपना भाव :-*
हमने लोक-परलोक साधन के लिए , जन्म मरण का फंदा काटने के लिए अथवा परमपद की प्राप्ति के लिए शास्त्रों में लिखी विधि से परमात्मा के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया , उसकी पूजा उपासना नहीं की , सारी उम्र पेट की चिंता में बिता दी ! हमने पूर्वजन्म या वर्तमान जन्म के पापों के समूल नाश करने के लिए प्रायश्चित्त नहीं किये , न जीवों को अभय किया , न दानपुण्य किया , *फिर हमारे लिए स्वर्ग का द्वार कैसे खुल सकता है ?* क्योंकि धर्म का सञ्चय करने से ही स्वर्ग का द्वार खुलता है ! न हमने परमात्मा के पद-पंकजों का ध्यान किया , न धर्म सञ्चय किया और न स्त्री के पीनपयोधरों का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया ! *अर्थात् न हमने संसार के मिथ्या विषय-सुख ही भोगे और न हमने मोक्ष या स्वर्ग प्राप्ति के उपाय ही किये !* हमारी वही स्थिति हुई कि:--
*दुविधा में दोनों गए , माया मिली न राम*
अथवा इधर के रहे न उधर के रहे | हमने यों ही संसार में जन्म लेकर अपनी माता की युवावस्था और नाश की ! अगर हम जैसे निकम्मे न पैदा होते तो बेचारी की युवावस्था तो न नष्ट होती ।
*××××××××××××××××××××××××××××××××*
*भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः !*
*कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः !! १२ !!*
*अर्थात् :-* विषयों को हमने नहीं भोगा किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया | हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला | काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला | तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया |
*अपना भाव:--*
हमने बहुत कुछ भोग भोगे पर भोगों का अन्त न आया हाँ हमारा अन्त अवश्य आ गया | काल या समय का अन्त न आया किन्तु हमारा अन्त आ गया | हमारी आयु पूरी हो चली | हमें जो धर्म-कार्य करने थे वह हम न कर सके | हमने तप तो नहीं तपा किन्तु संसारी तापों ने हमारे को ही तपा डाला ! संसार के जालों में फंसकर हम ही शोक-तापों से तप गए | हमारा अन्त आ पहुंचा, हम निर्बल और वृद्ध हो गए पर तृष्णा बूढी और कमज़ोर न हुई अर्थात् हमें संसार से विरक्ति न हुई |
*×××××××××××××××××××××××××××××××*
*क्षान्तम् न क्षमया ग्रहोचितसुखं ,*
*त्यक्तं न सन्तोषतः !*
*सोढा दुःसहशीतवाततपन ,*
*क्लेशा न तप्तम् तपः !!*
*ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमित ,*
*प्राणैर्न शम्भोः पदम् !*
*तत्तत्कर्म कृतम्य यदेव मुनिभिस् -,*
*तैस्तैः फलैर्वचितम् !! १३ !!*
*अर्थात् :-* क्षमा तो हमने की परन्तु धर्म की दृष्टि से नहीं की | हमने घर के सुख चैन तो छोड़े पर सन्तोष से नहीं छोड़े | हमने सर्दी-गर्मी और हवा के न सह सकने योग्य दुःख तो सहे किन्तु ये सब दुःख हमने तप की गरज से नहीं वरन् दरिद्रता के कारन सहे | हम दिन रात ध्यान में लगे तो रहे पर धन के ध्यान में लगे रहे | हमने प्राणायाम क्रिया द्वारा शम्भू के चरणों का ध्यान नहीं किया | हमने काम तो सब मुनियों के से किये, परन्तु उनकी तरह फल हमें नहीं मिले |
*अपना भाव:--*
हमनें क्षमा तो की परन्तु दया-धर्मवश नहीं की, हमारी क्षमा असमर्थता के कारण हुई; हममे सामर्थ्य नहीं थी इसलिए शांत हो गए | हमने अच्छा खाना पीना ऐश-आराम छोड़े, मजबूरी से छोड़े; अपनी भीतरी इच्छा से नहीं छोड़े | हमने उन्हें रोग प्रभृति के कारण त्यागा, पर सन्तोष से नहीं त्यागा | हमने गर्म-सर्द हवा के झोंके सही हमने सर्दी-गर्मी सही जरूर, पर तप की गरज से नहीं, किन्तु घर में पैसा न होने के कारण से सहे | हम सोते जागते आठ पहर, चौंसठ घडी ध्यान तो करते रहे, पर पैसे या स्त्री-पुत्रों का अथवा संसार के और झगड़ों का ही ध्यान रहा | हमने भोलानाथ के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया | *सारांश यह है कि* हमने मुनियों की तरह विषय-सुख त्यागे , उनकी तरह सर्दी-गर्मी के दुस्सह कष्ट भी उठाये , उनकी तरह हम ध्यान मग्न भी रहे पर वे जिस तरह सामर्थ्य होते भी शांत होते हैं , सन्तोष के साथ विषय-सुखों से मुंह मोड़ लेते हैं , शिव का ही ध्यान करते हैं , उस तरह हमने नहीं किया | *इसी से हम उन फलों से वञ्चित रहे, जिनको वे लोग प्राप्त करते हैं |*
*वैराग्य की दो अवस्थायें होती हैं*
*१- दरिद्रावस्था में वैराग्य*
*----------------------------*
जैसे :- आपके घर में कंगाली और अभाव का साम्राज्य है | आप स्त्री और बच्चों का पालन नहीं कर सकते | इसलिए स्त्री आपको असम्मान की दृष्टि से देखती है | *यह सब देखकर आपके हृदयं में वैराग्य पैदा हुआ है | यह निम्न स्तर का वैराग्य है |*
*२- सुखैश्वर्य में वैराग्य*
*----------------------*
जैसे :- आपका अन्तः करण शुद्ध हो गया है | अतः आप धनैश्वर्य और पुत्रकलत्रादि को त्यागकर वन को जा रहे हैं | आप कहते हैं "अब मुझे विषय सुख अच्छे नहीं लगते , मैं वन जाकर जगदीश का भजन करूँगा ।" *यही वैराग्य उत्तम वैराग्य है और ऐसे नररत्न प्रशंसा के पात्र हैं |*
*××××××××××××××××××××××××××××××××××*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" अष्टम् भाग: !!*