*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*
इस कलिकाल में अनेक लोग *वैराग्य* के विषय में जानना चाहते हैं | *वैराग्य* क्या है ? इसके विषय में जानने के लिए हमें अपने ग्रन्थों का स्वाध्याय करने की आवश्यकता है | इन्हीं ग्रन्थों में एक है *राजा भर्तृहरि* (भरथरी) द्वारा लिखा गया *वैराग्य शतकम्* | इसको यदि ध्यान पूर्वक पढ़ लिया जाय तो *वैराग्य* का वास्तविक अर्थ स्वयं पता चल सकता है | आज के युग में इस शतक में कही गयी बातें कुछ लोगों को बेमानी ही लगेंगी परंतु सत्य यही है | *राजाभर्तृहरि* द्वारा १०० श्लोकों में रचित *वैराग्य शतकम्* के भावार्थ के साथ ही अपना भाव भी मिश्रित करके आप सबके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ ! *सुधी पाठकों* से आशा है कि अच्छी बातें चुनकर जो अच्छी न लगें उन्हें हमारी मूर्खता समझकर हमें अपना बनाये रखेंगे |
🦚🌟🦚🌟🦚🌟🦚🌟🦚🌟🦚🌟
*दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्तचिन्मात्रमूर्त्तये !*
*स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे !! १ !!*
*अर्थात :-* जो दशों दिशाओं और तीनो कालों में परिपूर्ण है, जो अनन्त है, जो चैतन्य स्वरुप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शान्त और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्मरूप परमात्मा को *मैं नमस्कार करता हूँ* |
*बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः !*
*अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम् !! २ !!*
*अर्थात :-* जो विद्वान् हैं, वे इर्ष्या से भरे हुए हैं; जो धनवान हैं, उनको उनके धन का गर्व है; इनके अतिरिक्त जो और लोग हैं, वे अज्ञानी हैं; इसलिए विद्वत्तापूर्ण विचार, सुन्दर सुन्दर सारगर्भित निबन्ध या उत्तम काव्य शरीर में ही नाश हो जाते हैं |
*अपना भाव :-*
👉 जो विद्वान् हैं, पण्डित हैं, जिन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान या अक्ल है, वे तो अपनी विद्वता के अभिमान से मतवाले हो रहे हैं, वे दूसरों के उत्तम से उत्तम कामों में छिद्रान्वेषण करने या नुक्ताचीनी करने में ही अपना पांडित्य समझते हैं; अतः ऐसो में कुछ कहने में लाभ की जरा भी सम्भावना नहीं |
👉 दूसरे प्रकार के लोग जो धनी हैं, वे अपने धन के गर्व से भूले हुए हैं | उन्हें धन-मद के कारण कुछ सूझता ही नहीं, उन्हें किसी से बातें करना या किसी की सुनना ही पसन्द नहीं; अतः उनसे भी कुछ लाभ नहीं |
👉 अब रहे तीसरे प्रकार के लोग; वे नितान्त मूर्ख या अज्ञानी हैं; उन गँवारों में अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं, अतः उनसे कुछ कहने या अपनी कृति दिखाने सुनाने को दिल नहीं चाहता; इसलिए हमारे मुंह से निकल सकने वाले उत्तमोत्तम विचार, निबन्ध, काव्य या सुभाषित, संसार के सामने न आकर, हमारे शरीर में ही नष्ट हुए जाते हैं | हमारा परिश्रम व्यर्थ जाता है और संसार हमारे कामों के देखने और लाभान्वित होने से वञ्चित रहता है |
*शिक्षा :-* जो तुम्हारी तरफ उन्मुख हों, तुम्हारी बातों पर कान दे, तुम्हारी बातों को ध्यान से सुने, उन्ही को अपनी बातें सुनाओ । जो तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो । ऐसा करने से आपकी आत्म-प्रतिष्ठा में बट्टा लगेगा - आपका अपमान होगा ।
*इसीलिए कहना है कि :--*
*पण्डित मत्सरता भरे, भूप भरे अभिमान !*
*और जीव या जगत के, मूरख महाअजान !!*
*मूरख महाअजान, देख के संकट सहिये !*
*छन्द प्रबन्ध कवित्त, काव्यरस कासों कहिये !!*
*वृद्धा भई मनमांहि, मधुर बाणी मुखमण्डित !*
*अपने मन को मार, मौन घर बैठत पण्डित !!*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" प्रथम भाग: !!*