*अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदित्थं*
*शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षयं पाटवं नः !*
*सेवन्ते त्वां धनान्धा मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा*
*मय्यप्यास्था न ते चेत्त्वयि मम सुतरामेष राजन्गतोऽस्मि !! ३० !!*
*अर्थात् :-* यदि तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं | यदि तुम युद्ध करने में वीर हो तो हम अपने प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ करके उनका मद-ज्वर तोड़ने में कुशल हैं | यदि तुम्हारी सेवा धन-कामी या धनान्ध करते हैं, तो हमारी सेवा अज्ञान-अंधकार का नाश चाहनेवाले, शास्त्र सुनने के लिए करते हैं | यदि तुम्हें हमारी ज़रा भी चिन्ता नहीं है, तो हमें भी तुम्हारी बिलकुल चिन्ता नहीं है | लो, हम भी चलते हैं |
*अपना भाव :-*
ऊँचे पद पर बैठे हुए एक क्रूर , ऐश्वर्यशाली , धनान्ध , कामान्ध , मूर्ख की अपेक्षा निर्धनता में जीवन यापन करने वाला विद्वान अधिक सुखी होता है | ऐसे ऐश्वर्यशाली पुरुषों का सम्मान वहीं तक होता है जहाँ तक लोग उसके नाम व रूप को जानते हैं परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से सर्वत्र पूज्यनीय होता है :-- *स्वदेशे पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते"* इसलिए कभी भी धनमद में उन्मत्त होकर किसी विद्वान की अवहेलना तथा अनादर नहीं करना चाहिए |
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*यदा किञ्चिज्झोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं*
*तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः !*
*यदा किंचित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं*
*तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः !! ३१ !!*
*अर्थात् :-* जब मैं थोड़ा जानता था, तब हाथी के समान मद से अन्धा हो रहा था , मैं समझता था कि मैं सर्वज्ञ हूँ | जब मुझे बुद्धिमानो की संगत से कुछ मालूम हुआ; तब मैंने समझा, कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता | मेरा झूठा मद, ज्वर की तरह उतर गया |
*अपना भाव:--*
ऊँट यह समझता है कि मुझसे ऊँचा कोई है ही नहीं परंतु जब वह पर्वत की संगत में आता है तब स्वयं को छोटा मानने लगता है उसका मिथ्याभिमान चूर चीर हो जाता है | आज अनेक लोग अपनी विद्वता की डींग स्वयं हाँकते धूमते हैं उनको ऐसा लगता है कि हमने वेद पुराणादि का अध्ययन कर लिया तो मेरे समान कोई दूसरा है ही नहीं परंतु ऐसे लोग जब किसी निद्वतसमाज में पहुँचते हैं और वहाँ विद्वानों के भाष्य देखते हैं तो उनको नतमस्तक होना ही पड़ता है और तब उनको लगता है कि संसार में मुझसे भी अधिक विद्वान अवश्य हैं | इसीलिए कभी भी अपनी विद्वता , बल एवं धन के मद में ंतल़वाला नहीं होना चाहिए | परंतु ऐसा वही करते हैं जो *अल्पज्ञानी* होते हैं |
*किसी ने ठीक ही कहा है:-*
*"अल्प विद्यो महागर्वी "*
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*अतिक्रान्तः कालो लटभललनाभोगसुभगो*
*भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणौ !!*
*इदानीं स्वः सिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः*
*सुतारैः फुत्कारैः शिवशिवशिवेति प्रतनुमः !! ३२ !!*
*अर्थात् :-* आभूषणों से लदी हुई स्त्रियों के भोगने-योग्य जवानी चली गयी , और हम चिरकाल तक विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते थक भी गए | अब हम पवित्र जाह्नवी तट पर, (ललचाने वाली स्त्रियों) की निन्दा करते हुए शिव-शिव जपेंगे |
*अपना भाव :-*
प्रत्योक मनुष्य जो जीवन भर परमात्मा से दूर ही रहा हो उसको अपने अन्तकाल में विचार अवश्य करना चाहिए कि :- अब तो बुढ़ापे का समय है , इस आयु में हम सुन्दरियों का साथ कर भी नहीं सकते | इसके अतिरिक्त हम सावधान भी हो गए हैं | हमने मूर्खता छोड़ दी है , हम बहुत दिनों तक विषयों में लीन रहे हमने बहुत कुछ विषय भोग भोगे अब हम थक गए , उनसे हमारा जी ऊब गया | उनसे हमें कुछ भी सुख नहीं मिला | इसलिए हम गंगा जी के किनारे बैठ कर, संसार बन्धन की मूल और माया की जड़ सुंदरियों की ममता छोड़, शिव से प्रीती करेंगे और दिन-रात उन्ही का पवित्र एवं कल्याणकारी नाम जपेंगे, | जिससे हमारा अंतकाल तो सुधर जाए |
*रमणकाल यौवन गयो, थक्यो भ्रमत संसार !*
*देहुँ गंगतट शेष वय, शिव-शिव जपत विस्तार !"*
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*माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि*
*क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने !*
*युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जह्नुकन्यापयः-*
*पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्जे निवासः क्वचित् !! ३३ !!*
*अर्थात् :-* जब लोगों में कोई स्वाभिमान / मर्यादा न रहे , धन नाश हो जाये ; याचक लौट लौट कर जाने लगें , भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और नाते-रिश्तेदार मर जाएं , तब बुद्धिमान को चाहिए कि किसी ऐसे पर्वत की गुहा के कोने में जा बसे, जिसके पत्थर गंगा जी के जल से पवित्र हो रहे हों |
*अपना भाव :-*
सत्य यही है कि जब लोगों में अपना मान न रहे , लोग ईर्ष्या की दृष्टि से देखने लगें , अपनी धन-दौलत जाती रहे , जो याचक पहले कुछ पाते थे, वे निर्धनता के कारण विमुख होकर लौट जाते हैं | भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्र प्रभृति नातेदार दूसरी दुनिया को चले गए हों | जब संसार में अपना कुछ न बचे तब तो बुद्धिमान को चाहिए कि संसार को त्याग दें ! इसमें मोह न रखें और किसी ऐसे पहाड़ की गुफा में जा रहे जिसके पत्थरों को पवित्र गंगाजल पखार पखारकर पवित्र करता हो | ऐसी हालत में संसार में रहना - वृथा समय खोना है | कम से कम उस समय तो बुद्धिमान एकान्त में बैठकर, सब तरह की आशा तृष्णा छोड़कर, भगवान् के चरणकमलों के मन लगावे | *परंतु माया के वशीभूत होकर मनुष्य इसी में मरा करता है |*
*गयो मान यौवन सुधन, भिक्षुक जात निराश !*
*अब तो मौको उचित यह, श्रीगंगा तट बास !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" सप्तदश भाग: !!*