*स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ ,*
*मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम !*
*स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-,*
*महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं !! २० !!*
*अर्थात् :-* स्त्रियों के स्तन मांस के लौंदे हैं पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है | स्त्रियों का मुंह कफ का घर है पर कवि उसे चन्द्रमा के समान बताते हैं और उनकी जांघो को जिनमे मूत्र प्रभृति बहते रहते हैं श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान कहते हैं ! स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है पर कवियों ने उसकी कैसी प्रशंसा की है |
*अपना भाव :-*
*नारी* इस सृष्टि का मूल है , बिना *नारी* के सृष्टि की परिकल्पना करना भी व्यर्थ है परंतु जो कामी पुरुष कामासक्त होकर किसी भी स्त्री का दर्शन करते हैं उनके लिए *नारी* पतन का कारण बन जाती है | ऐसे लोग समाज की किसी भी वर्ग की *नारी* , चाहे वह कन्या हो , युवती हो या फिर वृद्धा हो सबने उसके भोग्या शरीर को ही देखते हैं तथा उसी में सारा सुख ढूंढते हैं |
*ऐसे लोगों को ही सावधान करते हुए *कबीरदास जी" ने लिखा है :---*
*अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल !*
*रंग रूप पर भये लुभाना ,*
*क्यों भूल गया हरि नाम दिवाना ,*
*इस धन यौवन का नाहिं ठिकाना ,*
*दो दिन में हो जाये धूल !*
*अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल !!*
*कंचन भरे दो कलश बतावे ,*
*ताहि पकड़ आनंद मनावे ,*
*यह तो चमड़े की थैली है मूरख ,*
*जिन पै रह्यो तू भूल !*
*अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल !!*
*जा मुख को तू चन्दा कर माने ,*
*थूक राल वामे लिपटाने ,*
*धिक् धिक् धिक् ! तेरे या मुख पै ,*
*मिष्टा में रह्यो तू भूल !*
*अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल !!*
*कैसा भारी धोका खाया ,*
*तन पर कामिनि के ललचाया ,*
*कहें कबीर आँख से देखा ,*
*यह तो माटी का स्थूल !*
*अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल !!*
कुछ लोग सारे कार्य छोड़कर दिन रात नारी के सुन्दर शरीर की ही कल्पना में खोये रहते हैं ऐसे पुरुष समझ लें कि अन्त तक उनकी यह कल्पना बनी ही रहती हौ और मरण समय जिसकी कल्पना / वासना जिसमें रहती है, वह उसे अवश्य मिलता है |
*वासना यत्र यस्य स्यात्सतं स्वप्नशु पश्यति !*
*स्वप्नवन्मरणे ज्ञेयं वासनातो वपुर्नृणां !!*
*अर्थात् :-* जिस मनुष्य की जहाँ वासना होती है, उसी वासनाके अनुरूप वह स्वप्न देखता है ! स्वप्नके समान ही मरण होता है अर्थात् वासनाके अनुरूप ही अन्तसमयमें चिन्तन होता है और उस चिन्तनके अनुसार ही मनुष्यकी गति होती है |
*नारी कहूं कि नाहरी(सिंहनी), नख-सिख सों यह खाय !*
*जल बूड़ा तो ऊबरे, भग बूड़ा बहि जाय !!*
*एक कनक अरु कामिनी, तजिये भगिए दूर !*
*हरि विच पारें अन्तरा, यम देसी मुख धूर !!*
*जहाँ काम तहाँ राम नहीं, राम तहाँ नहीं काम !*
*दोउ कबहुँ न रहें, काम राम इक ठाम !!*
*अविनाशी विच धार तिन, कुल कंचन अरु नार !*
*जो कोई इन ते बचे, सोइ उतरे पार !!*
*मनुष्यों और पशुओं में क्या भेद है ?*
मनुष्य खाते, सोते, डरते और स्त्री भोग करते हैं और पशु भी यही चारों काम करते हैं | पर इन दोनों में अंतर यही है कि मनुष्य कोधर्म का ज्ञान है, पशु को नहीं | यदि मनुष्य पशुओं की तरह अज्ञानी हो, तो वह भी पशु ही है |
*अधीत्य वेदशास्त्राणि, संसारे रागिणश्च ये !*
*तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः !!*
*अर्थात् :-* जो पुरुष वेद-शास्त्रों को पढ़कर भी संसार से या स्त्री-पुरुष आदि से प्रीति रखते हैं, उनसे बढ़कर मूर्ख कौन है ? क्योंकि स्त्री-पुरुष प्रभृति में तो कुत्ते, घोड़े और सूअर भी प्रेम रखते हैं |
*शुकदेव जी ने भागवत में कहा है :-*
*मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, वेदशास्त्राणय धीत्य च !*
*वध्यते यदि संसारे, को विमुच्येत मानवः ?*
*अर्थात्:-* दुर्लभ मनुष्य चोला पाकर और वेद-शास्त्र पढ़कर भी यदि मनुष्य संसार के विषयों में फंसा रहे , तो फिर संसार बन्धन से छूटेगा कौन ?
*कबीरदास जी कहते हैं:-*
*काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि !*
*कहा मूर्ख कहा पण्डिता, दोनों एक समानि !!*
जब तक मन में, काम, क्रोध, मद और लोभ है, तब तक पण्डित और मूर्ख दोनों समान हैं | जिसमें ये सब नहीं, वही पण्डित है और जिसमें ये सब हैं, वह मूर्ख और अज्ञानी है |
*शंकराचार्य कृत "प्रश्नोत्तरमाला" में लिखा है :-*
*शूरान्महाशूर तमोऽस्ति को वा ?*
*मनोजवाणैर्व्यथितो न यस्तु !*
*प्राज्ञोऽति धीरश्च शमोऽस्ति को वा ?*
*प्राप्तो न मोहं ललनाकाटाक्षैः !*
*अर्थात् :-*
*संसार में सबसे बड़ा शूरवीर कौन है ?*
*जो काम-बाणो से पीड़ित नहीं है !*
*प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है ?*
*जिसे स्त्री के कटाक्षों से मोह नहीं होता !*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" द्वादश भाग: !!*