*तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदीं*
*गुणोदारान्दारानुत परिचयामः सविनयम् !*
*पिबामः शास्त्रौघानुतविविधकाव्यामृतरसा*
*न्न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने !! ४० !!*
*अर्थात् :-* हमारी समझ में नहीं आता, कि हम इस अल्प जीवन - इस छोटी सी ज़िन्दगी में क्या क्या करें ? *अर्थात-* हम गंगा तट पर बस कर तप करें अथवा गुणवती स्त्रियों की प्रेम-सहित यथायोग्य सेवा करें अथवा वेदान्त शास्त्र का अमृत पिएं या काव्यरस-पान करें |
*इपना भाव:--*
यह जीवन क्षण भर का है | *इस क्षणभंगुर जीवन में हम क्या क्या करें ?* काम तो अनेक हैं, पर समय थोड़ा है | गंगा तट पर जाकर शिव-शिव की रट लगाना भी अच्छा है , गुणवती सुंदरियों के साथ मीठी-मीठी बातें बनाना, उनके संग रहना और उनके साथ रमण करना भी भला है | वेदान्त शास्त्र के मर्म को समझना और उसका अमृत रस पीना या काव्य-रस पीना भी अच्छा है | अच्छे सब हैं और सभी करने योग्य हैं , *पर हमारी समझ में नहीं आता, कि क्षणभर कि ज़िन्दगी में हम क्या-क्या करें ?* मतलब यह है, कि मनुष्य जीवन बहुत ही थोड़ा है | *इसलिए मनुष्य को अनितिम श्वांस तक सब तज कर एकमात्र परमात्मा का भजन करना चाहिए |*
*इसी पर कबीरदास जी कहते हैं -*
*यह तन कांचा कुम्भ है, मांहि किया रहबास !*
*"कबिरा" नैन निहारिया, नहीं पलक की आस !!*
*"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल !*
*चेत सके तो चेतिये, मीच परी है ख्याल !!*
*"कबिरा" सुपने रैन के, उघरि आये नैन !!*
*जीव परा बहु लूट में, जागूँ तो लेन न देन !!*
*आजकाल की पांच दिन, जंगल होयेगा बास !*
*ऊपर-ऊपर हिल फिरे, ढोर चरेंगे घास !!*
*इसी भाव पर तुलसीदास जी भी कहते हैं -*
*"तुलसी" जग में आईके, कर लीजे दो काम !*
*देवेको टुकड़ा भलो, लेवेको हरिनाम !!*
*"तुलसी" राम-सनेह करु, त्यागु सकल उपचार !*
*जैसे घटत न अंक नौ, नौ के लिखत पहार !!*
*जग ते रहु छत्तीस ह्वै, राम-चरन छत्तीन !!*
*"तुलसी" देखु विचारि हिय, है यह मतौ प्रवीन !!*
*कबीरदास जी के दोहे विस्तृत भावार्थ अपनी ओर से करने का सूक्ष्म प्रयास:--*
यह शरीर *मिटटी के कच्चे घड़े जैसा है* | इसी के अंदर *जीवात्मा* रहता है | *कबीरदास जी कहते हैं:-*, आखों से देखा है, एक क्षण की भी आशा नहीं | कहने का तात्पर्य यह है कि जिस शरीर में जीवात्मा रहता है, *वह कच्चे घड़े के समान क्षण-भंगुर है |* जिस तरह कच्चे घड़े को फूटते देर नहीं; उसी तरह इस कच्चे घड़े जैसे शरीर को नाश होते देर नहीं | कौन जाने किस क्षण यह शरीर रुपी कच्चा घड़ा फुट जाय और इसमें से जीवात्मा निकल जाय ? इसकी आशा उतनी देर की भी नहीं, जितनी देर पलक झपकने में लगती है | जो दिन आज है, वह कल न होगा | जीव ! चेत सके तो चेत | *काल सर पर सवार है |*
जो अज्ञानी बरसों का प्रबन्ध करते हैं, बरसों जीने की आशा करते हैं, वे इस वचन से शिक्षा ग्रहण करें | *इस जीवन का क्या भरोसा ?* आज हो, कल रहो या न रहो | आज तुम हंस-खेल रहे हो, आज तुम्हारा शरीर आरोग्य है , आश्चर्य नहीं, कल तुम बीमार हो कर मरण-शय्या पड़े हो अथवा मर ही जाओ | *इसलिए चेत करो, होश सम्भालो और आगे की यात्रा की तैयारी करो |* अगर संसार के जंजाल में फंसे हुए, जीवन की लम्बी आशा रखे हुए, शीघ्र ही, आज ही, अभी, इसी क्षण से अगली यात्रा का प्रबन्ध न करोगे; वहां मिलने के लिए - यहाँ के ईश्वरीय बैंक द्वारा - रूपए-पैसे, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, महल-मकान और बाग़-बगीचों का बंदोबस्त न करोगे - इस दुनिया में पराया दुःख दूर न करोगे और मालिक का नाम न जपोगे; तो तुम्हें उस लम्बे सफर में बड़ी-बड़ी तकलीफो का सामना करना पड़ेगा | *यहाँ बोओगे, तो वहां काटोगे ! यहाँ अच्छा करोगे, तो वहां अच्छा पाओगे | यहाँ गरीब और असहायों को दोगे, तो वहां आपको मिलेगा |* ईश्वर द्वारा उपहार स्वरूप मिला *यह जीवन सपने के समान है |* रात को सपने में देखा कि जीव लूट में पड़ा है, तरह तरह के ऐश आराम कर रहा है, सुख भोग रहा है; लेकिन ज्योंही आँख खुली तो क्या देखता हूँ, कि कुछ भी नहीं है | जिस तरह सपने में आदमी हृदय को आनन्दित करने वाले बाग़-बगीचों की सैर करता है , प्रेमिका के गले में हाथ डाले घूमता है , उससे रतिक्रिया करता है ! अथवा राजा होता है , शासन करता है ! चन्द्रबदनियों का नाच-गान देखता है और मन ही मन बड़ा खुश होता है ! *पर ज्योंही आँख खुलती है, तो न बाग़-बगीचे दीखते है और न प्रेमिका और राज-पाट|* बस, ठीक यही हाल जाग्रत अवस्था का है ` जिस तरह रात के सपने को मिथ्या समझते हो, उसी तरह दिन के दृश्यों को भी मिथ्या समझो | वह सपना सोई हुई हालत में दीखता है और यह जागते हुए देखते हैं | आज एक आदमी राजा है, हज़ारों तरह के भोग, भोग रहा है; पर कल ही वह राह का भिखारी बन जाता है । आज किसी के घर में सुन्दर पतिव्रता नारी है, आज्ञाकारी पुत्र-पौत्र, सुशीला पुत्र-वधुएं और कन्याएं हैं, सैकड़ों दास-दासी हैं, द्वार पर हाथी झूमता है, मोटर हर समय दरवाजे पर खड़ी रहती है; कुछ दिन बाद देखते हैं कि वह आदमी गुदड़ी ओढ़े हुए सड़क पर भीख मांग रहा है | पूछते हैं, क्यों जी, तुम्हारा यह क्या हाल ? तुम्हारे कुटुम्बी और धन-दौलत का क्या हुआ? जवाब देता है - भाई ! प्लेग में सारे घर के लोग मर गए | कोई पानी देने वाला और नाम लेने वाला भी न रहा | धन-दौलत में से कुछ को चोर और शेष को डाकू, डाका डाल कर ले गए | जब खाने का भी ठिकाना न रहा, तब प्राणरक्षार्थ भीख माँगना आरम्भ किया है | *अब कहिये, ऐसे जीवन और सुख भोगों को सपने की माया न कहें तो क्या कहें ?* | विचार कीजिए *अभी हमने अपने कितने प्रियजनों को वर्तमान में तांडव मचा रहे कोरोना संक्रमण के चलते खोया है !* क्या यह सब सपना नहीं था ? *जब साथ छोड़कर चले जाने वाले सपनों की भाँति हो गये तो क्या अब जो हमारे प्यारे हमारे साथ हैं, हमारे सामने फिरते-डोलते और काम-धंधा करते हैं, उनको भी हम सपने की माया न समझें ?* अनेक दिव्गत प्रियजनों की भाँति हम भी सबको छोड़कर यमसदन के वासी न होंगे ? हमारे पीछे जो रह जाएंगे, उन्हें हम सपने में मिले हुए के समान न दिखेंगे ? *कबीरदास जी कहते हैं :-* यद्यपि हमने अभी तक घर-गृहस्थी नहीं त्यागी है | अभी हम संसारी जंजालों में फंसे हुए हैं; तो भी हम अपने प्यारे से प्यारे के मरनेपर भी आँखों से आंसू नहीं डालते | बहुत लोग हमारे इस हाल को देखकर अचम्भा करते हैं | कोई कुछ और कोई कुछ कहता है | पर हमारे न रोने-कूकने का कारण यह है, कि हमने इस संसार में ऐसे ऐसे बहुत से दुःख देखे हैं | हम कई प्राण प्यारों की वियोगग्नि में जले हैं । इसी से अब हम समझ गए हैं कि यह सब सपना है | *एक न एक दिन हम भी सबको छोड़कर चल देंगे अथवा और सब जो हमारी आँखों के सामने है हमारे देखते देखते, सपने में देखे हुओं की तरह, गायब हो जाएंगे |* अरे भाई ! आज अथवा कल अथवा पांच दिन बाद तुम्हारा बसेरा जंगल में होगा , तुम्हारे ऊपर हल चलेंगे अथवा तुम्हारे ऊपर उगी हुई घास को गाय-भैंस आदि पशु चरेंगे ! *कहने का तात्पर्य यह है कि* तुम कदाचित आज ही मर जाओ; आज बच गए तो कल खैर नहीं , अगर सांस पूरे न हुए होंगे - चित्रगुप्त के खाते में तुम्हारे कुछ सांस बाकी होंगी तो उनके पूरे होने पर पांच या दस दिन बाद तुम अवश्य मरोगे | *तुम इस शरीर में सदा न रहोगे |* तुम्हारे देह छोड़ते ही, लोग तुमसे घृणा करेंगे | तुम्हारी हृदयेश्वरी ही तुम्हारी सूरत देखकर डरेगी , तुम्हारे बदन पर अगर एक चांदी का छल्ला भी होगा, तो उसे उतार लेगी | लोग तुम्हें लेजाकर जला या गाड़ आवेंगे | जिस जगह तुम जलाये या दफनाए जाओगे - जहाँ तुम्हारे शरीर की ख़ाक पड़ी होगी, उसी जगह किसान हल चलावेंगे | यदि तुम्हारी मिटटी पर घास उग आएगी, तो ढोर चौपे उसे चरेंगे | *अतः सावधान हो जाओ ! मोह की नींद त्यागो और अपनी अवश्यम्भावी यात्रा का प्रबन्ध करो , जिससे राह में तुम्हें किसी वास्तु का अभाव और किसी तरह की तकलीफ न हो |*
इस दुनिया में काम बहुत है और उम्र का यह हाल है, कि पलक मारने भर का भरोसा नहीं | इस क्षण-भर की ज़िन्दगी में कौन सा काम करना चाहिए, जिससे की आगे की यात्रा में सुख ही सुख मिले ? । मनुष्य को क्या काम करना चाहिए ! यह बताते हुए *गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत ही सुन्दर मार्गदर्शन दिया है* | उन्होंने मनुष्य के लिए दो ही काम चुन दिए हैं - *"देवे को टुकड़ा भला, लेवे को हरिनाम"!* उनकी इन दो बातों का जो पालन करेंगे, निश्चय ही उनको सुख ही सुख है | उन्हें नारको की भीषण यातनाएं न सहनी होंगी | वे स्वर्ग में नाना प्रकार के सुख भोगेंगे और अमृतपान करेंगे, कल्पतरु उनकी इच्छाओं को पूरी करेगा | अगर वे पराया भला करके, दुखियों के दुःख दूर करके, बदला पाने की इच्छा न करेंगे; निष्काम कर्म करेंगे और और कृष्ण के प्रेम में लिप्त हो जाएंगे, उसके सिवा किसी भी संसारी पदार्थ को न चाहेंगे; तो उन्हें वह चीज़ मिलेगी, जो हज़ारों लाखों स्वर्गों से भी बढ़-चढ़कर होगी; फिर उन्हें दुःख का नाम भी न सुनना पड़ेगा | *तुलसीदास जी ने अपने दोहों में जो बाते कही है उन्हें खाली पढ़िए ही नहीं, उनकी पालन भी कीजिये |* बिचारने से उनकी बातें आपके दुःख और क्लेश नाश करने वाली महाऔषधियां जान पड़ेंगी | अगर आप उनकी बताई हुई दवा पिएंगे, तो आप अजर-अमर हो जाएंगे |
*तुलसीदास जी* यही तो कहते हैं - *संसार में आकर दो काम कर लो १- भूखों को भोजन दो और २- भगवान् का नाम लो |*
*अगली लाईन में तुलसीदास जी कहते हैं -*
कर्म, ज्ञान और उपासना प्रभृति उपचारों को त्याग कर भगवान् की भक्ति करो; क्योंकि भक्ति से विषयी लोगों को भी मुक्ति मिल सकती है; किन्तु कर्म, ज्ञान और उपासना से नहीं | *जैसे नौ (९) का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक नहीं मिटता, वैसे ही कर्म, ज्ञान आदि से वासना नहीं मिटती और जब तक वासना बनी रहती है तब तक मुक्ति नहीं हो सकती |* वासना ही तो जन्म मरण की जड़ है, वासना से ही जन्म लेना पड़ता है; वासना मिटी और मुक्ति हुई; पर विषयी लोगों की वासना नहीं मिटती | *जिस तरह नौ का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक बना ही रहता है; उसी तरह उनके कर्म, ज्ञान और उपासना आदि उपचार करने पर भी वासना बनी ही रहती है |*
*तुलसीदास जी के इन दोनों का भावार्थ लिखना हो तो कम से कम ५/६ पृष्ठ में लिखा जा सकता है* परंतु संक्षिप्त भावार्थ यह है कि यह मुक्ति-लाभ करने के लिए "भक्ति" सीधा और सरल उपाय है | नारद, वाल्मीकि और शबरी प्रभृति, भक्ति के प्रभाव से ही ऊँचे चढ़े हैं - कर्म, ज्ञान और उपासना आदि से नहीं |
*जगत से ३६ की तरह और भगवान् के चरणों में - छह, तीन या तिरसठ की तरह रहो |*
*६ जगत है और ३ मनुष्य है | ३६ के अंक में ३ ने ६ को पीठ दे रखी है | बस, इसी तरह तुम इस जगत को पीठ देकर रहो; अर्थात संसार की ओर मत देखो, संसार में ममता मत रखो | दूसरी ओर भगवान् के पक्ष में ६३ की तरह रहो | इसमें ६ भगवान् की शरण है और ३ मनुष्य है | जिस तरह ३ का अंक ६ की ओर टकटकी लगाए देखता रहा है उसी तरह मनुष्य को हरदम जगदीश की शरण में टकटकी लगाए हुए रहना चाहिए |*
*इसी भव परसकिसी ने लिखा है :--*
*तप तीरथ तरुणी-रमण, विद्या बहुत प्रसंग !*
*कहा-कहा मन रूचि करै, पायौ तन क्षणभंग !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" चतुर्बिंश भाग: !!*