*विपुलहृदयैर्धन्यैः कैश्चिज्जगज्जनितं पुरा*
*विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा !*
*इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते*
*कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः !! २३ ।।!!*
*अर्थात्:-* जब से यह सृष्टि हुई तब से लेकर आज तक अनेकों महाबली हुए ! कोई तो ऐसे बड़े दिलवाले लोग हुए जिन्होंने इस प्राचीनकाल में इस जगत की रचना की | कुछ ऐसे हुए जिन्होंने इस जगत को अपनी भुजाओं पर धारण किया | कुछ ऐसे हुए जिन्होंने समग्र पृथ्वी जीती और फिर तुच्छ समझकर दूसरों को दान कर दी , और कुछ ऐसे भी हैं जो चौदह भुवन का पालन करते हैं | *जो लोग थोड़े से गावों के मालिक होकर अभिमान के ज्वर से मतवाले हो जाते हैं, उनके सम्बन्ध में हम क्या कहें ?*
*अपना भाव:--*
*इस संसार में भाँति भाँति के लोग हैं कुछ सज्जन हैं तो कुछ दुर्जन भी हैं | इनकी पहचान करने में कभी कभी लोग भ्रमित हो जाते हैं | शास्त्रों में इन पुरुषों के लक्षण बताये गये हैं ! यथा :- सज्जन लोग धनैश्वर्य और प्रभुता पाकर कभी अहंकार नहीं करते तो ओछे या नीच ही थोड़ी सी विषय सम्पत्ति पाकर अभिमान किया करते हैं |
इसी से सम्बन्धित सुन्दर श्लोक *नीति रत्न* में लिखा है:-*
*दिव्यं चूतरसं पीत्वा गर्वं नो याति कोकिलः !*
*पीत्वा कर्दमपानीयं भेको मकमकायते !!*
*अगाधजलसञ्चारी न गर्वं याति रोहितः !*
*अङ्गष्ठोदकमात्रेण सफरी फर्फरायते !!*
*अर्थात् :-* उत्तम रसाल के रस को पीकर कोकिल गर्व नहीं करती , किन्तु कीचड मिला पानी पीकर ही मेंढक टरटराया करता है | अगाध जल में रहने वाली रोहित मछली गर्व नहीं करती किन्तु अंगूठे जितने जल में सफरी मछली ख़ुशी से नाचती फिरती है | बस ! छोटे और बड़े , पूरे और ओछे लोगों में यही अन्तर होता है | जो जितना छोटा है, वह उतना ही घमण्डी और उछलकर चलनेवाला है और जो जितना ही बड़ा और पूरा है वह उतना ही गम्भीर और निरभिमानी है | नदी नाले थोड़े से जल से इतरा उठते हैं किन्तु सागर जिसमें अनंत जल भरा है गम्भीर रहता है |
*अपना भाव :-*
अभिमान या अहंकार महा अनर्थों का मूल है , यह नाश की निशानी है | अहंकारी से परमात्मा दूर रहता है | जिससे परमात्मा दूर रहता है, उसके दुःखों का अंत कहाँ है ? अतः यही कहना चाहूँगा कि स्वयं को पतित कर देने वाले अभिमान को त्यागो | जो आज टुकड़ो का मुहताज है, वह कल राजगद्दी का स्वामी दिखाई देता है और आज जिसके सर पर राजमुकुट है, सम्भव है कि कल वह गली-गली मारा-मारा फिरे | क्योंकि परमात्मा की गति निराली है कर्मानुसार एक क्षण परिवर्तन दिखने लगता है :-
*इसीलिए कहा गया है :--*
*रंकं करोति राजानं राजानं रंकमेव च !*
*धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं तथा !!*
संसार की यही गति है इसलिए अभिमान वृथा है | परमात्मा ने एक से बढ़कर एक बना दिया है |
*यह परमात्मा की नियति है कि:--*
*एक-एक से एक-एक को, बढ़कर बना दिया !*
*दारा किसी को, किसी को सिकन्दर बना दिया !!*
*अपना भाव;-*
इस संसार में आकर आपको किस बात का गर्व है ? यह राज्य और धन दौलत क्या सदा आपके कुल में रहेंगे या आपके साथ जायेंगे ? जो रावण लंकेश्वर था , जिसने यक्ष , किन्नर , गन्धर्व और देवताओं तक को अपने अधीन कर लिया था , आज वह कहाँ है ? उसका धन वैभव क्या उसके साथ गया ? जिन भगवान राम ने समुद्र पर पुल बांधकर वानर सेना से रावण का नाश किया ! उन भगवान को भी जाना पड़ा | जिस बलि ने रावण जैसे त्रिलोक विजयी को अपनी काँख में दबा रखा था आज वह बलि कहाँ है ? जिस सहस्त्रबाहु ने रावण को बन्दी बनाया था , वह सहस्त्रबाहु ही आज कहाँ है ? चारों दिशाओं को अपने भुजबल से जीतनेवाले भीम और अर्जुन कहाँ हैं ? *इस पृथ्वी पर अनेक, एक से एक बली राजा और शूरवीर हो गए, पर यह पृथ्वी किसी के साथ न गयी* | क्या आपका धन-दौलत, जमींदारी या राजलक्ष्मी अटल और स्थिर है ? क्या यह आपके साथ जाएगी ? कदापि नहीं | *आप जिस तरह खाली हाथ आये थे, उसी तरह खाली हाथ जायेंगे |*
इसीलिए *कबीरदास जी* लिखते हैं:-
*धरती करते एक पग, करते समन्दर फाल !*
*हाथों परवत तोलते, ते भी खाये काल !!*
*हाथों परवत फाड़ते, समुन्दर घूँट भराय !*
*ते मुनिवर धरती गले, कहा कोई गर्व कराय !!*
*इसलिए कुछ विद्वता , बल , ऐश्वर्य पाकर मद में फूलने से अच्छा है कि इस सत्यता पर विचार किया जाय*
*××××××××××××××××××××××××××××××××××*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" चतुर्दश भाग: !!*