*हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमशनं ,*
*धात्रामरुत्कल्पितं !*
*व्यालानां पशवः तृणांकुरभुजः ,*
*सृष्टाः स्थलीशायिनः !!*
*संसारार्णवलंघनक्षमधियां ,*
*वृत्तिः कृता सा नृणां !*
*यामन्वेषयतां प्रयांति संततं ,*
*सर्वे समाप्ति गुणाः !! १० !"*
*अर्थात् :-* विधाता ने हिंसारहित , बिना उद्योग के मिलने वाली हवा का भोजन साँपों की जीविका बनाई ! पशुओं को घास खाना और जमीन पर सोना बताया , किन्तु जो मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से भवसागर के पार हो सकते हैं उनकी जीविका ऐसी बनाई कि जिसकी खोज में उनके सारे गुणों की समाप्ति हो जाये पर वह न मिले |
*अपना भाव:-*
विधाता ने सांपो के लिए तो हवा का भोजन बता दिया ! जिसे प्राप्त करने में किसी प्रकार की हिंसा भी नहीं करनी पड़ती और वह बिना किसी प्रकार की चेष्टा के उन्हें अपने वासस्थानों में ही मिल सकता है | पशुओं के लिए घास चरने को और जमीन सोने को बता दी , इससे उनको भी अपने खाने के लिए विशेष चेष्टा नहीं करनी पड़ती ! वे जंगल में उगी उगाई घास तैयार पाते हैं और इच्छा करते ही पेट भर लेते हैं ! उन्हें सोने के लिए पलँगो और गद्दे-तकियों की चिन्ता नहीं करनी पड़ती जमीन पर ही जहाँ जी चाहता है पड़ रहते हैं | सर्प और पशुओं के साथ भगवान् ने पक्षपात किया , उन्हें निश्चिन्तता की ज़िन्दगी भोगने के उपाय बता दिए | किन्तु मनुष्यों के साथ ऐसा नहीं किया , उन बेचारों को बुद्धि तो ऐसी दे दी कि जिससे वे संसार सागर के पार हो सकें अथवा दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त हो सकें , पर उन्हें जीविका ऐसी बताई कि जिसकी खोज में उनके सारे प्रयत्न बेकार हो जाएं पर जीविका का ठिकाना न हो | *यह क्या कुछ कम दुःख की बात है ?* यदि विधाता मनुष्यों को भी साँपों और पशुओं की सी ही जीविका बताता तो कैसा अच्छा होता ? मनुष्य जीविका की चिन्ता न होने से सहज में ही अपनी बुद्धि के जोर से मोक्ष पा जाते |
*किसी ने ठीक कहा है -*
*घृतलवणतैलतण्डुल शोकन्धन चिन्तयाऽअनुदिनम् !*
*विपुल मतेरपि पुंसो नश्यति धीरमन्दविभावत्वात् !!*
*अर्थात्:-* घी, नोन, तेल, चावल, साग और ईंधन की चिंता में बड़े बड़े मतिमानों की आयु भी पूरी हो जाती है ; पर इस चिंता का ओर छोर नहीं आता | इसी से मनुष्य को ईश्वर भजन या परमात्मा की भक्ति-उपासना को समय नहीं मिलता | अगर मनुष्य इतनी आपदाओं के होते हुए भी परलोक बनाना चाहे तो उसे चाहिए कि अपनी ज़िन्दगी की जरूरतों को कम करे क्योंकि *जिसकी आवश्यकताएं जितनी ही कम हैं वह उतना ही सुखी है |* इसलिए महात्मा लोग महलों में न रहकर वृक्षों के नीचे आयु व्यतीत कर देते हैं | वन में जो फल-फूल मिलते हैं उन्हें खाकर और झरनो का शीतल जल पीकर पेट भर लेते हैं | *आवश्यकताओं को कम करना ही सुख-शांति का सच्चा उपाय है |*
*××××××××××××××××××××××××××××××××××*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" सप्तम् भाग: !!*