*उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ,*
*ध्माता गिरेर्धातवो !*
*निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो ,*
*यत्नेन संतोषिताः !!*
*मन्त्राराधनतत्परेण मनसा ,*
*नीताः श्मशाने निशाः !*
*प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया ,*
*तृष्णेऽधुना मुञ्चमाम् !! ४ !!*
*अर्थात् :-* धन मिलने की उम्मीद से मैंने जमीन के पैंदे तक खोद डाले ; अनेक प्रकार की पर्वतीय धातुएं फूंक डाली ; मोतियों के लिए समुद्र की भी थाह ले आया ; राजाओं को भी राजी रखने में कोई बात उठा न रखी , मन्त्रसिद्धि के लिए रात रात भर श्मसान एकाग्रचित्त से बैठा हुआ जप करता रहा , पर चिन्ता की बात है, कि इतने कष्ट उठाने पर भी कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए हे तृष्णे ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़ |
*तृष्णा के विषय में भगवान वेदव्यास जी महाभारत के आदि पर्व में लिखते हैं:--*
*पृथिवी रत्नसंपूर्णा हिरण्यं पशवः स्त्रियः !*
*नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत् !!*
*अर्थात् :-* पृथ्वी रत्नों से भरी है , यह स्वर्ण (मूल्यवान धातुएं आदि), पशुधन, तथा स्त्रियों का भंडार है | यह सब एक व्यक्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है ऐसा मानते हुए मनुष्य शमन का रास्ता अपनाये | ऐसा इसलिए है कि मनुष्य सब मिल जाने पर भी असंतुष्ट बना रहेगा और मेरे पास और अधिक होता जैसे भाव उसके मन में उत्पन्न होते रहते हैं |
मनुष्य का मन सदैव और अधिक की ही कामना किया करता है ! *इस पर अपना एक भाव है :--*
*और धन और जन और नारि और पूत ,*
*और विद्या और रूप रुचिर जवानी है !*
*और बड़ो पंच परधान पद विश्व चाह ,*
*और और मिले तब और ही ही दिवानी है !!*
*और और चाह मांहिं ज्ञान भक्ति गौर भूलि ,*
*श्वान सम दौरत न पावत ठिकानी है !*
*और और करत में मृत्यु कौर होय गयो ,*
*शान अभिमान सब धूरि में मिलानी है !!*
*कहने का तात्पर्य यह है कि :-* भाग्य के विरुद्ध चेष्टा करना व्यर्थ है | जितना धन भाग्य में लिखा है , उतना तो बिना कोशिश किये , बिना किसी की प्रशंसा किये , बिना देश-विदेश डोले , घर बैठे ही मिल जाएगा | भाग्य के लिखे से अधिक हजारों चेष्टाएं करने पर भी न मिलेगा | मूर्ख मनुष्य भाग्य पर सन्तोष नहीं करता , धन के लिए मारा मारा फिरता है और जब कुछ भी हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है |
जबकि हमारे शास्त्रों में लिखा है कि :-
*आयु: वित्तं च धर्मम् च , विद्या निधनमेव च !*
*पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते , गर्भस्थ्यैव हि देहिन: !!*
*अर्थात् :-* शरीरधारी की आयु , जीवन में उसको मिलने वाला धन , उसके द्वारा धर्म कितना किया जायेगा , विद्या कितनी प्राप्त होगी और उसका निधन कब और कैसे होगा इसका निर्धारण गर्भ में ही हो जाता है | यह जानते हुए भी मनुष्य और अधिक की कामना किया करता है |
*भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषम् ,*
*प्राप्तं न किञ्चित्फलम् !*
*त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं ,*
*सेवा कृता निष्फला !*
*भुक्तं मानविवर्जितम परगृहेष्- ,*
*वाशङ्कया काकव- !*
*त्तृष्णे दुर्मतिपापकर्मनिरते ,*
*नाद्यापि संतुष्यसि !! ५ !!*
*अर्थात् :-* मैं अनेक कठिन और दुर्गम स्थानों में डोलता फिरा , पर कुछ भी परिणाम न निकला | मैंने अपनी जाति और कुल का अभिमान त्यागकर पराई चाकरी भी की पर उससे भी कुछ न मिला | शेष में मैं कव्वे की तरह डरता हुआ और अपमान सहता हुआ पराये घरों के टुकड़े भी खाता फिरा | हे पाप-कर्म करने वाली और कुमतिदायिनी तृष्णे ! क्या तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ |
*अपना भाव*
मनुष्य जीवन भर और अधिक पाने की तृष्णा पाले रहता है और उसी की खोज में जीवन भर इधर से उधर दौड़ा करता है | मनुष्य की तृष्णा तब तक नहीं समाप्त होती जब तक उसके में संतोष नहीं होता ! किसी ने कहा भी है :--
*गोधन गजधन बाजिधन , और रतनधन खान !*
*जब आवै सन्तोषधन , सब धन धूरि समान !!*
इसीलिए मनुष्य को तृष्णा के वशीभूत होने से बचने का प्रयास करते हुए जो मिला उसी में सन्तोष करने का प्रयास करते रहना चाहिए ! अन्यथा मनुष्य सुखी नहीं हो सकता |
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" तृतीय भाग: !!*