आजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने ,*
*स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम् !*
*विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिलान् ,*
*न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा !! २१ !!*
*अर्थात् :-* अज्ञानवश, पतङ्ग दीप की लौ पर गिरकर अपने तन को भस्म कर लेता है; क्योंकि वह उसके परिणाम को नहीं जानता ! इसी तरह मछली भी कांटे के मांस पर मुंह चलाकर अपने प्राण खो देती है , क्योंकि वह उससे अपने प्राण-नाश की बात नहीं जानती | *परन्तु हम लोग तो अच्छी तरह जानबूझकर भी विपद मूलक विषयों की अभिलाषा नहीं त्यागते | मोह की महिमा कैसी विस्मयकर है |*
*अपना भाव :-*
कितना महान आश्चर्य है कि मनुष्य - जिसे भगवान् ने *श्रेष्ठ बुद्धि एवं विवेक* दिया ! जो जानता है कि *विषयों की कामना* आफत की जड़ है ! *विषयों में सुख नहीं* बल्कि घोर विपदा है ! *विषय विष से भी अधिक दुखदायी हैं* फिर भी वह दिन - रात विषयों की इच्छा करता है | इससे कहना पड़ता है कि *मोह की माया बड़ी कठिन है |*
*कबीरदास जी कहते हैं:-*
*शङ्कर हूँ ते सबल है, माया या संसार !*
*अपने बल छूटे नहीं, छुडावे सिरजनहार !!*
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*फलमलमशनाये स्वादुपानाय तोयं ,*
*शयनमवनिपृष्ठे वल्कले वाससी च !*
*नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणा-*
*मविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् !! २२ !!*
*अर्थात् -* खाने के लिए फलों की कमी नहीं है , पीने के लिए मीठा जल है , पहनने के लिए वृक्षों की छाल है; फिर हम धनमद से मतवाले दुष्टों की बातें क्यों सहें ?
*अपना भाव :-*
इस संसारसमें मनुष्य के पास सब कुछ है लेकिन मनुष्य को सन्तोष नहीं है क्योंकि उसे *तृष्णा* नहीं छोड़ती इसी से वह *विषयों को* भोगने की लालसा से लोगों की प्रशंसा करता है यही नहीं उनकी टेढ़ी-सूधी भी सुनता है ! ऐसा करके *वह अपनी प्रतिष्ठा खोता है !* निरादर और अपमान सहता है | *अगर वह सन्तोष कर ले* तो उसे ऐसे दुष्टों और धनमद से मतवाले शैतानो की खुशामद क्यों करवानी पड़े ? अपनी मानहानि क्यों करनी पड़े ? परमात्मा इन शैतानो से बचावे ! एक तो तंगदिल लोग वैसे ही शैतान होते हैं, पर जब उन पर दौलत का नशा चढ़ जाता है, तब तो उनकी शैतानी का ठिकाना ही क्या ?
*धन मद के मतवालों के लिए किसी शायर ने लिखा है :--*
*नशा दौलत का बद अवतार को, जिस आन चढ़ा !*
*सर पै शैतान के, एक और भी शैतान चढ़ा !!*
अनुभवहीन और तंगदिल मनुष्य पर जिस समय दौलत का नशा चढ़ गया, तब मानो शैतान के सर पर एक और शैतान चढ़ गया |
जिसे किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं वो किसी की खुशामद क्यों करेगा ? वह अपना मान क्यों खोयेगा ? निष्पृह के लिए तो जगत तिनके के समान है | *इसलिए सुख चाहो तो इच्छाओं को त्यागो !*
*किसी ने ठीक ही कहा है:-*
*भागती फिरती थी दुनिया, तब तलब करते थे हम !*
*अब जो नफरत हमने की, तो बेक़रार आने को है !!*
*जिसने तृष्णा का त्याग कर दिया उसे न तो किसी बात सहनी है और न ही किसी एहसान लेना है ! क्योंकि :--*
*भूमि शयन, बल्कल वसन, फल भोजन जलपान !*
*धन मदमाते नरन को, कौन सहत अहमान !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" त्रयोदश भाग: !!*