*शिरः शार्व स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं*
*महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् !*
*अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा*
*विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः !! ४४ !!*
*अर्थात्:-* देखिये, गङ्गा जी स्वर्ग से शिवजी के मस्तक पर गिरी ; उनके सर से हिमालय पर्वत पर ; हिमालय से पृथ्वी पर ; और पृथ्वी से समुद्र में गिरी | इससे मालूम होता है, कि विवेक-हीनो का पद पद पर सैकड़ो प्रकार से पतन होता है |
*अपना भाव:--*
ईश्वर ने मनुष्य को विवेक रूपी सुंदर शस्त्र दिया है | *कोई भी कार्य करने से पहले मनुष्य को अपने विवेक के विचार अवश्य कर लेना चाहिए |* क्षणिक आवेश में बिना विचारे जो भी काम करता है उसको बाद में पछताना ही पड़ता है और पग-पग पर उसका पतन होता है |
*इसीलिए कहा गया है :-*
*बिनाविचारे जो करइ सो पाछे पछताय !*
*काम बिगारे आपनो जग में होत हंसाय !!*
जो विचारपूर्वक काम नहीं करते , जो अक्ल से काम नहीं लेते , उनको तरह तरह से नीचे देखना पड़ता है | *राजा भर्तृहरि जी* ने यहाँ गङ्गा का दृष्टान्त दिया है ! *आखिर यह दृष्टांत क्यों दिया ?*
*इस पर विचार करना आवश्यक है*
देव , दानव , मानव *कोई भी हो अपने कर्मों के फल से वह बच नहीं सकता* ब्रह्मा जी की सभा में देव नदी गंगा ने *महाराज महाभिष* को देख कर के जिस प्रकार मर्यादा का उल्लंघन किया , ना तो उन्होंने ब्रह्मा जी की सभा की मर्यादा की लाज रखी और ना ही अपने स्त्रीत्व की | जिसके फलस्वरूप उनको धरती पर आने का श्राप मिला | अगर वहीं पर गंगा जी ने विवेक से काम किया होता तो शायद उनको धरती पर आने का श्राप न मिलता है और पग-पग पर उनका पतन ना होता |
*शिक्षा:-* जो विवेकहीन हैं , जो अहंकारी हैं , वे सदा नीचे देखते और बार बार नीचे गिरते हैं ; *अतः मनुष्य को भूलकर भी घमण्ड न करना चाहिए* और खूब विचार कर काम करना चाहिए | गङ्गा को बड़ा घमण्ड हुआ, तब उसका गर्व ख़त्म करने के लिए ब्रह्मा ने उसे अपने कमण्डल में भर लिया | गङ्गा का मस्तक नीचे हो गया | फिर भी, उसने घमण्ड न छोड़ा , तब शिवजी ने उसे अपनी जटाओं में रोक लिया | फिर महाराज भगीरथ ने घोर तप किया, तो शिवजी ने उसे छोड़ा | शिवजी के सिर से वह हिमालय पर गिरी और वहां से बहती बहती समंदर में जा गिरी | जो गर्व करते हैं, जगदीश उनके दुश्मन हो जाते हैं | *जगदीश (भगवान) उन्ही को मिलते हैं, जो गर्व से दूर भागते हैं और विवेकभ्रष्ट नहीं होते |*
शेख सादी ने कहा है -
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*आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला*
*रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी !*
*मोहावर्त्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुड्गचिन्तातटी*
*तस्याः पारगता विशुद्धमनसोनन्दन्ति योगीश्वराः !! ४५ !!*
*अर्थात्:-* आशा एक नदी है , उसमें इच्छा रुपी जल है ; तृष्णा उस नदी की तरंगे हैं , प्रीति उसके मगर हैं , तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं , मोह उसके भंवर हैं ; चिंता ही उसके किनारे हैं ; वह आशा नदी धैर्यरूपी वृक्ष को गिरानेवाली है ; इस कारण उसके पार होना बड़ा कठिन है | *जो शुद्धचित्त योगीश्वर उसके पार चले जाते हैं; वे बड़ा आनन्द उपभोग करते हैं |*
*अपना भाव:--*
*इस संसार में किसी से भी कभी भी कोई आशा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आशान्वित मनुष्य की जब आशा टूटती है तो उसे अपार कष्ट होता है |*
*इसीलिए बार बार कहा जाता है:-*
*आशा एक रामजी से दूजी आशा छोड़ दे !*
यदि आनन्द चाहो; तो आशा, इच्छा, प्रीति, तर्क-वितर्क, मोह और चिन्ता प्रभृति को एकदम छोड़कर शुद्धचित्त हो जाओ और अपने आत्मा या ब्रह्म के ध्यान में तन्मय हो जाओ |
*किसी ने बड़ा सुंदर भाव दिया है :--*
*नदीरूप यह आश, मनोरथ पुअर रह्यो जल !*
*तृष्णा तरल तरंग, राग है यह ग्राह महाबल !*
*नाना तर्क विहंग, संग धीरज तरु तोरत !*
*भ्रमर भयानक मोह, सबद को गहि गहि बोरत !!*
*नित बहत रहत चित-भूमि में, चिन्तातट अति विकट !*
*कढ़ि गए पार योगी पुरुष, उन पायौ सुख तेहि निकट !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" सप्तविंशोभाग: !!*