*वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या*
*सम इह परितोषो निर्विशेषावशेषः !*
*स तु भवति दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला*
*मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान्को दरिद्रः ? !! ५० !!*
*अर्थात्:-* हम वृक्षों की छाल पहनकर सन्तुष्ट हैं; आप लक्ष्मी से सन्तुष्ट हो ! हमारा तुम्हारा दोनों का सन्तोष समान है, कोई भेद नहीं ! वह दरिद्र है, जिसके दिल में तृष्णा है ! मन में सन्तोष आने पर कौन धनी और कौन निर्धन है ? अर्थात संतोषी के लिए धनी और निर्धन दोनों बराबर हैं |
*अपना भाव:---*
संसार में अनेक प्रकार की सम्पदा है जिसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य दिन रात प्रयासरत रहता है कभी कभी कुछ प्राप्त करने के लिए वह अनैतिक कृत्य भी करता है ! सब कुछ पा जाने के बाद भी उसे सदैव और अधिक पा जाने की लालसा बनी ही रहती है ! उसे कभी सन्तोष नहीं होता और वह कभी भी सुखी नहीं हो पाता क्योंकि *जिसमें सन्तोष है, वही सदा सुखी है !* उसे कोई सुख नहीं जिसकी इच्छाएं बड़ी बड़ी हैं | *जिसे सन्तोष नहीं है; वह सदा दुखी है !* सन्तोष बड़ी से बड़ी दौलत से भी अच्छा है | *जो सुखी होना चाहे, वह तृष्णा को त्यागे और परमात्मा जो दे उसी में सन्तोष करे !* सन्तोषी के लिए कोई व्याधि नहीं है | सन्तोषी के चित्त, मन और काया सदा सुखी रहते हैं | सन्तोषी किसी की प्रशंसा नहीं करता |
*इसी बात पर कहना है:--*
*जिसके हृदयं सन्तोष है वह है सदा सुखी !*
*चिन्ता उन्हें न रहती कि ज्यादा मिला कि कम !!*
*अर्थात्:-* जो सन्तोषी हैं और भाग्य पर भरोसा रखते हैं, उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर हैं | उन्हें जो मिल जाये उसी पर सन्तोष है |
*ईश्वर से यही माँगा जाय कि :--*
*प्रभु ! कुछ अगर देना है तो सन्तोष दे देना !*
*इसके बराबर दूसरा कुछ सृष्टि में नहीं !!*
*अर्थात्:-* हे भगवन ! सन्तोष देकर मुझे धनी बना दो - क्योंकि संसार की कोई दौलत संतोष से बढ़कर नहीं है |
*मनुष्य को चाहिए कि सूखी रोटी और चीथड़ों से बानी गुदड़ी में सुखी रहे | मनुष्यों के एहसानों का भार उठाने से अपने दुखों का भार हल्का न समझे |* जो लोभी हैं, उनको या तो सन्तोष से सुख मिलता है अथवा मर जाने से |
*सन्तोष की महत्ता बताते हुए कबीर जी कहते हैं :--*
*गो-धन गज-धन बाजि-धन और रतन-धन-खान !*
*जब आवे सन्तोष-धन, सब धन धूरि-समान !!*
*अर्थात्:-* संसार में गो धन, गज धन, बाजि धन और रतन धन आदि अनेक प्रकार के धन हैं | कोई गायों को धन मानता है, कोई हाथियों को धन मानता है, कोई घोड़ों को और कोई हीरे, पन्ने, पुखराज, नीलम प्रभृति को धन मानता है | संसारी लोग इन सबको ही धन समझते हैं, पर इन धनो से किसी की भी तृष्णा नहीं बुझती, सन्तोष नहीं आता - शान्ति नहीं मिलती | जब सन्तोष रुपी धन मनुष्य के हाथ आता है; तब वह गाय, बैल, घोड़े, हाथी, मुहर-अशरफी और हीरे-पन्ने प्रभृति धनो को मिटटी के समान समझता है और सन्तोष-धन से सुखी हो जाता है | *सारांश यह कि गाय, घोड़े, हाथी, हीरे-पन्नो प्रभृति से किसी को सुख शांति नहीं मिलती | सुख शांति मिलती है केवल सन्तोष से; अतः सन्तोष धन सब धनो से बड़ा धन है |* और धन, देखने में अच्छे मालूम होते हैं, पर उनमें वास्तविक सुख नहीं - *वास्तविक सुख सन्तोष में ही है |*
*तुलसीदास जी कहते हैं :--*
*जहाँ तोष तहाँ राम है, राम तोष नहीं भेद !*
*"तुलसी" देखत गहत नहिं, सहत विविध विधि खेद !!*
मनुष्य जब संसारी मनुष्यों का आसरा-भरोसा छोड़कर भगवान् की शरण में आ जाता है, तब उसे *सन्तोष* होता है | भगवान् में और *सन्तोष* में अन्तर नहीं है । जहाँ *सन्तोष* है, वहां भगवान् है और जहाँ भगवान् है, वहाँ *सन्तोष* है | *तुलसीदास जी कहते हैं -* हमने आँखों से देखा है, जिन्होंने भी भगवान् की शरण गही और *सन्तोष* किया, वे निश्चय ही सुखी हुए | इसके विपरीत, जो लोग संसारी मनुष्यों और धन प्रभृति से सुख की आशा करते हैं, भगवान् से विमुख रहते हैं, उन पर भरोसा नहीं करते, एकमात्र उन्हीं की शरण में नहीं जाते, वे नाना प्रकार के दुःख भोगते हैं | बचपन में माँ के मर जाने से अथवा परतंत्र रहने से दुःख पाते हैं | जवानी में अपनी स्त्री को परपुरुष का देखकर जलते-कुढ़ते हैं अथवा पराई सुन्दर स्त्री को देखकर और उसे न पाकर कामाग्नि में भस्म होते हैं अथवा पुत्र कन्या और स्त्री प्रभृति प्यारों के मरने से उनकी वियोगग्नि में जल-जलकर दुखी होते हैं; अथवा धन के नाश होने से कलपते हैं | बुढ़ापे में आँख, कान आदि इन्द्रियों के बेकाम हो जाने से और शरीर में शक्ति न रहने एवं जने-जने से अपमानित होने से घोर, दुःसह दुःख सहन करते हैं | जब तरह तरह के रोग आकर घेर लेते हैं, तब जीवन भार स्वरुप मालूम होता है | जब ऐसे ऐसे झंझटों में तृष्णा को साथ लेकर मर जाते हैं; तब फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेते और मरते हैं | इस तरह हज़ारों लाखों बरस बाद - न जाने कब ? फिर मनुष्य जन्म मिलता है | *मनुष्य देह पाकर ही मनुष्य अपने उद्धार का उपाय कर सकता है* क्योंकि इसी जन्म में भले बुरे के विचार की शक्ति होती है; और योनियों में तो पाप ही पाप होते हैं; *अतः मनुष्य जन्म को साधारण समझकर यों ही सांसारिक सुख-भोगों में नहीं गंवाना चाहिए |* संसारी सुख-भोगो से न तो इस दुनिया में सुख शांति मिलती है और न इसके बाद की दुनिया में | इस लोक में सुख भोगनेवालों को लाखों वर्षों तक घोर दुःख भोगने होते हैं | हाँ, जो लोग इस मनुष्य देह की कीमत समझकर, सब संसारी सुखों को लात मारकर, भगवान् की शरण में चले जाते हैं और संतोष वृत्ति रखते हैं; वे इस लोक और परलोक में सदा सुख भोग करते हैं और अंत में ब्रह्म में लीन हो जाते है |
*तुम धनसों सन्तुष्ट, हमहुँ हैं वृक्षबकल तें !*
*दोउ भये समान, नैन मुख अंग सकल तें !!*
*जाने जात दरिद्र, बहुत तृष्णा है जिनके !*
*जिनके तृष्णा नाहिं, बहुत सम्पत है तिनके !!*
*तुमहि विचार देखो दृगन, को निर्धन? धनवन्त को ?*
*जुत पाप कौन ? निष्पाप को ? को असन्त अरु सन्त को ?*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" द्वात्रिंस्र भाग: !!*