*पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-*
*मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं !*
*द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो*
*मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः !! ५५ !!*
*अर्थात्:-* वह क्षुधार्त (भूख से व्याकुल) किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है |
*तुलसीदास जी ने भी कहा है -*
*घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जायं !*
*तुलसी भैय्या बन्धु के, कबहुँ न माँगन जायं !!*
*तुलसीदास जी कहते है:-* अगर मनुष्य के पास खाने को न हो, उसको उपवास करते करते दस दिन बीत जाएं, अन्न बिना प्राण नाश होने की सम्भावना हो; तो भी उसे अपनी या अपने परिवार की जीवन रक्षा के लिए, कुछ मिलने की आशा से, भाई बन्धुओं के पास हरगिज़ न जाना चाहिए | क्योंकि ऐसे मौके पर वे लोग उसका अपमान करते हैं | उस अपमान का दुःख भोजन बिना प्राण नाश होने के दुःख से अधिक दुःखदायी होता है | मृत्यु की यंत्रणाओं का सहना आसान है, पर उस अपमान को सहना कठिन है |
*हमारे शास्त्रों में भी लिखा है:-*
*वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं,*
*द्रमालयः पक्कफलाम्बु भोजनं !*
*तृणानि शय्या परिधान वल्कलं,*
*न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनं !!*
*अर्थात्:-* व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए जंगल में रहना भला, वृक्षों के नीचे बसना भला, पके-पके फल खाना और जल पीना भला, घास पर सो रहना और छालों के कपडे पहन लेना भला; पर भाइयों के बीच में धनहीन होकर रहना भला नहीं |
*अपना भाव :-* मनुष्य को अपने आत्मसम्मान की रक्षा सदैव करते रहने का प्रयास करना चाहिए ! यह सत्य है कि बिना माँगे , आदान प्रदान किये किसी का भी काम नहीं चलता है परंतु माँगने जाने से पहले यह अवश्य ध्यान दे कि किससे माँगा जा रहा है ! बाहर के लोगों से माँग लेंगे तो वह कुछ नहीं कहेगा परंतु यदि अपने बंधु बाँधव से कुछ मांग लिया और समय पर वापस भी कर दिया है तो भी अवसर आने पर व्यंगात्मक शैली में परिवार वाले उस मांगी वस्तु की चर्चा अवश्य कर देते हैं इसलिए भूखे रह लो परंतु अपने बंधुओं से कभी भी कुछ न मांगो !
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*चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः*
*किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम् !*
*इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः*
*न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः !! ५६ !!*
*अर्थात्:-* यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है ? यह शूद्र है या तपस्वी है ? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं |
*अपना भाव:--* योगीजन लोगों की बुरी भली बातों का ख्याल नहीं करते , कोई कुछ भी क्यों न कहा करे | चाहे उन्हें कोई शूद्र कहे, चाहे ब्राह्मण, चाहे भंगी और चाहे तपस्वी; चाहे कोई निंदा करे, चाहे स्तुति; वे अच्छी बात से प्रसन्न और बुरी बात से अप्रसन्न नहीं होते सच्चे महात्मा हर्ष शोक, दुःख-सुख और मान-अपमान सबको समान समझते हैं और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं |
*योगेश्वर कृष्ण ने "गीता" के दूसरे अध्याय में कहा है -*
*दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः !*
*वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते !!*
*अर्थात्:-* जो दुःख के समय दुखी नहीं होता , जो राग, भय और क्रोध से रहित है, वह "स्थितप्रज्ञ" मुनि है |
*बुद्धिमान को किसी बात की परवाह न करनी चाहिए ! हाथी की तरह रहना चाहिए ! हाथी के पीछे हज़ारों कुत्ते भौंकते हैं, पर वह उनकी तरफ देखता भी नहीं |*
*कबीरदास जी कहते हैं -*
*हस्ती चढ़िये ज्ञान के, सहज हुलीचा डारि !*
*श्वान-रूप संसार है, भूंकन दे झक मारि !"*
*"कबिरा" काहे को डरै, सिर पर सिरजनहार !*
*हस्ती चढ़ दुरिये नहीं, कूकर भूसे हज़ार !!*
*ऐसा ही कुछ रहीम जी भी कहते हैं -*
*जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं "रहीम" घट जाहिं !*
*गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं !!*
*सज्जन चित्त कबहुँ न धरत, दुर्जन जान के बोल !*
*पाहन मारे आम को, तउ फल देत अमोल !!*
*अर्थात्:-* आप ज्ञान रुपी हाथी पर चढ़कर मस्त हो जाओ; किसी की परवा मत करो; बकनेवालों को बकने दो | यह संसार कुत्ते की तरह है , इसे भौंकने दो | झकमार कर आप ही रह जायेगा | देखते हो, जब हाथी निकलता है, सैकड़ों कुत्ते उसके पीछे पीछे भौंकते हैं; पर वह अपनी स्वाभाविक चाल से, मस्त हुआ, शान से चला जाता है - कुत्तों की तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखता ! वह तो चला ही जाता है और कुत्ते भी झकमार के चुप हो जाते हैं ! मतलब यह है कि तुम अच्छी राह पर चलो, संसार की बुरी भली बातों पर ध्यान मत दो ! हाथी का अनुकरण करो !
*कबीरदास कहते हैं -* अरे मनुष्य ! तू क्यों डरता है, जबकि तेरे पास तेरा बनानेवाला मौजूद है ? हाथी पर चढ़कर भागना उचित नहीं, चाहे हज़ारों कुत्ते क्यों न भौंके ! *मतलब यह कि तुमने जो उत्तम पथ का अनुसरण किया है, लोगो के बुरा भला कहने से उसे मत त्यागो | संसारी कुत्तों से न डरो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा |*
*रहीम कहते हैं:-* बड़ो को छोटा कहने से बड़े छोटे नहीं हो जाते - वे तो बड़े ही रहते हैं | गिरिराज या गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठानेवाले - अतुल पराक्रम दिखनेवाले कृष्ण को लोग गिरिधर की जगह मुरली या बांस की बांसुरी धारण करनेवाले मुरलीधर कहते हैं, लेकिन वे बुरा नहीं मानते ।
सज्जन लोग दुष्टों की कड़वी बातों या बोली-ठोलियों का ख्याल ही नहीं करते | लोग *आम के वृक्ष के पत्थर मारते हैं, तो भी वह अनमोल फल ही देता है |*
*इसीलिए कहा गया है:-*
*विप्र शूद्र योगी तपी, सुपच कहत कर ठोक !*
*सबकी बातें सुनत हों, मोको हर्ष न शोक !!*
*विप्रन के घर जाय, भीख माँगिबो है भलो !*
*बन्धुन को सिरनाय, भोजनहु करिबो बुरो !!*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" षष्ठत्रिंस्रो भाग: !!*