अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया ,*
*वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् !*
*व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः ,*
*स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति !! १६ !!*
*अर्थात् :-* विषयों को हम चाहें कितने दिन तक क्यों न भोगें परंतु सारे विषय भोग एक दिन निश्चय ही हम से अलग हो जायेंगे | तब मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे ? इस वियोग में क्या अन्तर है ? अगर मनुष्य न छोड़ेगा तो, वे छोड़ देंगे | जब वे स्वयं मनुष्य को छोड़ेंगे, तब मनुष्य को बड़ा दुःख और मनःक्लेश होगा | अगर मनुष्य उन्हें स्वयं छोड़ देगा, तो उसे अनन्त सुख और शान्ति प्राप्त होगी |
*अपना भाव :--*
जो लोग विषयों को पहले ही त्याग देते हैं उन्हें उनके न होने पर दुःख नहीं होता , किन्तु जो उन्हें नहीं छोड़ते उन्हें उनके न होने पर महाकष्ट होता है | जो बुद्धिमान पहले से ही धन दौलत स्त्री-पुरुष आदि से मोह हटा लेते हैं , उन्हें मरते समय कष्ट नहीं होता और जो उनमें अपना मन लगाए रहते हैं , वे मरते समय रोते हैं , पर ज़बान बंद हो जाने से अपने मन की बात भी बता नहीं सकते | इसलिए जो सुख से मरना चाहें उन्हें पहले से ही विषयों से मुख मोड़ लेना चाहिए | इसी तरह जो आज नाना प्रकार के सुख भोग रहा है यदि कल उसे वे सुख न मिलें, तो वह बड़ा दुखी होता है; किन्तु जो विषयों को भोगते तो हैं, किन्तु उनमें आसक्ति नहीं रखते, उन्हें विषय सुखों के न मिलने या उनसे बिछुड़ने पर ज़रा भी कष्ट नहीं होता |
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*विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा-,*
*परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः !*
*जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणस्तृषापात्रं ,*
*यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः !! १७ !!*
*अर्थात्:-* जब ज्ञान का उदय होता है तब शान्ति की प्राप्ति होती है | शान्ति की प्राप्ति से तृष्णा शान्त होती जाती है , किन्तु वही तृष्णा विषयों के संसर्ग से बेहद बढ़ जाती है | मतलब यह है कि विषयों से तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती | सुन्दरी के कठोर कूचों पर हाथ लगाने से काम-मद बढ़ता है घटता नहीं | जराजीर्ण ऐश्वर्य को देवराज इन्द्र भी नहीं त्याग सकते |
*अपना भाव:--*
ज्ञान से ही *तृष्णा* का नाश और शान्ति की प्राप्ति होती है | विषयों के भोगने से *तृष्णा* घटती नहीं उलटी बढ़ती है | जो *तृष्णा* को त्यागते हैं *तृष्णा* से घृणा करते हैं , उसे पास नहीं आने देते उनसे *तृष्णा* भी दूर भागती है | देखिये यद्यपि स्वर्ग के राज को भोगते लाखों-करोडो वर्ष बीत गए तो भी *इन्द्र* स्वर्ग-राज्य को छोड़ नहीं सकता | जब *इन्द्र* की भी *तृष्णा* लाखों-करोड़ों वर्ष राज्य भोगने से शान्त नहीं होती तब मनुष्य बेचारे किस खेत की मूली हैं ? *तृष्णा* पुरानी होने से बढ़ती है, घटती नहीं | हम ज्यों ज्यों विषय भोगते हैं त्यों त्यों वे पुराने होते हैं और हमारी *तृष्णा* बढ़ती है | पुराने होने पर उन्हें छोड़ने में हमें बड़ा कष्ट होता है |
*शिक्षा:-* *तृष्णा* को शीघ्र छोड़ो । पुरानी होने से वह पापीयसी और भी बलवती हो जाएगी फिर उसे त्यागना आपकी शक्ति से बाहर हो जायेगा | उसके नाश के लिए '*ज्ञान'* का पैदा होना जरुरी है; क्योंकि उसका सच्चा मार *ज्ञान* ही है |
*इसीलिए किसी ने कहा है ;---*
*तृष्णा-मूल नसाय होय जब ज्ञान उदय मन !*
*भये विषय में लौ बढे दिन-पर-दिन चौगुन !!*
*जैसे मुग्धा-नार कठिन कुच हाथ लगावत !*
*बढ़त काममद अधिक अधिक तब में सरसावत !!*
*जराजीर्ण ऐश्वर्य को त्यागत लागत दुःख अति !*
*तोहि तजिबे को असमर्थ यह वासव जो है वायुपति !!*
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*कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो ,*
*ब्रणी पूयल्किन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः !*
*क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजककपालार्पितगलः ,*
*शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः !! १८ !!*
*अर्थात् :-* दुबला काना और लंगड़ा श्वान (कुत्ता) जिसके कान और पूँछ नहीं हैं, जिसके जख्मों में राध बह रही है, जिसके शरीर मेंकीड़े बिलबिला रहे हैं, जो भूखा और बूढा है, जिसके गले में हांडी का घेरा पड़ा है वह भी कामपीडित होकर कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है | अर्थात्:- *कामदेव मरे हुए को भी मारता है |*
*अपना भाव :-*
जिस कुत्ते की ऐसी बुरी हालत है , वह कुत्ता भी मैथुन करने के लिए कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है | तब मोटे-ताजे मावा-मलाई और मिष्टान्न खाने वाले अपनी कामवासना को कैसे रोक सकते हैं ? इसी से बचने के लिए , ज्ञानी लोग अपनी देह को एकदम गला देते हैं , तरह तरह के व्रत और उपवास करते हैं , धूनी तपते हैं और शीत लहर सहते हैं | कामदेव बड़ा बलवान है जो उसके वश में नहीं आते वे सबसे बलवान और सच्चे योद्धा हैं |
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" दशम भाग: !!*