*दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा !*
*क्रोशद्भिः क्षुधितैर्नरैर्न विधुरा दृश्या न चेद्गेहिनी !!*
*याच्ञाभङ्गभयेन गद्गदगलत्रुट्यद्विलीनाक्षरं !*
*को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी जनाः !! ८ !!*
*अर्थात् :-* स्त्री के फटे हुए कपड़ों को दीनातिदीन बालक खींचते हैं , घर के और मनुष्य भूख के मारे उसके सामने रोते हैं - इससे स्त्री अतीव दुखित है | ऐसी दुखिनी स्त्री अगर घर में न होती तो कौन धीर पुरुष जिसका गला मांगने के अपमान और नकारने के भय से रुका आता है , अस्पष्ट भाषा या टूटे-फूटे शब्दों में, गिड़गिड़ा कर "कुछ दीजिये" इन शब्दों को, अपने पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए, कहता ?
*भूख से बिल्लाते बच्चे जिस मां की फटी पुरानी साडी को पकड़ कर खींचते हुए रो रहे हों और मां भी खुद भूख से बेताब हो, ऐसी स्त्री को यदि घर में देखना न पड़े, तो कोई ऐसा व्यक्ति न होगा जो अपना निजी पेट भरने के लिए किसी के सामने सवाल करने जाय और वह भी जबकि सवाल करने से पहले ही मन में यह दुविधा हो कि कहीं जबान खाली न जाय और इस डर से मुंह से शब्द भी न निकलें अर्थात घर में बच्चो और स्त्री कि यह दशा देख नहीं सकता इसलिए अपने अपमान का ध्यान न कर औरो से मांगने पर विवश हो जाता है ।
याचना करने से त्रिलोकी भगवान् को भी छोटा होना पड़ा, तब औरो कि कौन बात है ? इसीलिए *तुलसीदास जी* ने कहा है -
*तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो !*
*जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो !!*
*अर्थात् :-* हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो, जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन मरण करो | *कहने का तात्पर्य यह है कि* दूसरों को दे दो, पर दूसरों के आगे हाथ न फैलाओ , जिस दिन दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाने की स्थिति आये, उस दिन मरण हो जाए तो भला !
*रहीमदास जी* ने भी लिखा है :-
*रहिमन वे नर मर चुके जे कछु माँगन जाहिं !*
माँगना और मर जाना बराबर गी है ! माँगने वाला कभी भी बड़ा हो ही नहीं सकता !
*अपना भाव :--*
स्त्री पुरुषों के पालन पोषण की चिन्ता में सारी आयु बीत जाती है ; पर परमात्मा के भजन में उसका मन नहीं लगता ! मन तो तब लगे जबकि वह शुद्ध हो ! उसे तो प्रत्येक क्षण नून-तेल, आटे-दाल की चिन्ता लगी रहती है ! ईश्वर में मन न लगने से और शेष दिन आ जाने से उसे फिर जन्म-मरण के झंझटों में फंसना होता है , यह स्त्री माया ही संसार वृक्ष का बीज है ! शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध उसके पत्ते , काम, क्रोधादि उसकी डालियाँ और पुत्र-कन्या प्रभृति उसके फल हैं ! तृष्णा रुपी जल से यह संसार-वृक्ष बढ़ता है ! संसार बंधन से मुक्त होने में "कनक और कामिनी" ये दो ही बाधक हैं |
*किसी ने कहा है :-*
*चलूँ चलूँ सब कोई कहै, पहुंचे विरला कोय !*
*एक कनक और कामिनी, दुर्लभ घाटी दोय !!*
*एक कनक और कामिनी, ये लम्बी तलवारि !*
*चाले थे हरि मिलन को, बीचहि लीने मारि !!*
*नारि नसावै तीन सुख, जेहि नर पास होय !*
*भक्ति-मुक्ति अरु ज्ञान में, पैठ सके न कोय !!*
*स्कन्दपुराण का एक प्रसंग है , जहाँ शुकदेव जी एवं वेदव्यास जी की वार्ता पढ़ने को मिलती है !*
एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी से विवाह करने को कहा | व्यास जी ने समझाने में कुछ भी शेष न रखा , पर शुकदेव जी ने एक न मानी | उन्होंने कहा "पिताजी ! लोह और काठ की बेड़ियों से चाहे छुटकारा हो जाय , पर स्त्री पुत्र प्रभृति की मोहरूपी बेड़ियों से पुरुष का पीछा नहीं छूट सकता | हे पिताजी ! गृहस्थाश्रम जेलखाना है , इसमें किंचित भी सुख नहीं | स्त्री के लिए पुरुष को संसार में नीच से नीच काम करने पड़ते हैं | जिनके मुंह देखने से पाप लगता है उसकी भी प्रशंसा करनी पड़ती हैं, इसलिए मैं स्त्री बंधन में नहीं पड़ना चाहता |
*××××××××××××××××××××××××××××××××××*
*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" पंचम भाग: !!*