*भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं*
*मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया: भयम् !*
*शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं*
*सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् !! ३५ !!*
*अर्थात्:-* विषयों के भोगने में रोगों का डर है, कुल में दोष होने का डर है, धन में राज का भय है, चुप रहने में दीनता का भय है, बल में शत्रुओं का भय है, सौंदर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्रों में विपक्षियों के वाद का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में मौत का भय है; संसार की सभी चीज़ों में मनुष्यों को भय है | *केवल "वैराग्य" में किसी प्रकार का भय नहीं है |*
*अपना भाव:-*
इस संसार को दु:खालय कहा जाता है यहाँ किसी कोई तनिक भी सुख नहीं - सर्वत्र दुख अर्थात् भय ही भय है , पर दुष्ट और नीचों का भय सबसे भारी है | दुष्टों की संगत से नरक का वास है ! इसको *गेस्वामी तुलसीदास जी* ने स्पष्ट रूप से लिख दिया है :--
*बरु भल बास नरक कर ताता !*
*दुष्ट संग जनि देहिं विधाता !!*
*किसी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है :--*
संसार में ज़रा भी सुख नहीं है, सर्वत्र भय ही भय है | एक को एक खाने को दौड़ता है | जिसे देखो वही जला मरता है | यहाँ ईर्ष्या द्वेष का बाजार जोरों से गर्म रहता है, इसलिए ऐसी जगह चलकर रहना चाहिए, जहाँ कोई न हो; हमारी बात कोई न समझे और हम किसी की न समझें | मकान भी ऐसा ही हो, जिसमें दरवाजे और दीवार न हो; अर्थात साफ़, जंगल हो | न हमारा कोई साथी हो, न पडोसी; अगर बीमार हो जाएं, तो कोई खबर लेनेवाला देखरेख और सेवा-शुश्रूषा करनेवाला न हो | अगर सौभाग्य से मर जाएं, तो कोई शोक करनेवाला भी न हो | *यह सब हो जाय तो भी दुष्टों की संगति से अच्छा ही होगा |*
*महात्मा सुन्दरदास ने भी कहा है-*
*सर्प डसै, सु नहिं कछु तालक ,*
*बीछु लगै, सु भलो करि मानौ !*
*सिंह हु खाय, तु नाहिं कछु डर ,*
*जो गज मारत, तौ नहिं हानौ !!*
*आगि जरौ, जल बूढ़ि मरौ, गिरि ,*
*जाइ गिरौ; कछु भै मत मानो !*
*"सुन्दर" और भले सब ही यह ,*
*दुर्जन संग भले जिन जानौ !!*
*सुन्दरदास जी कहते हैं:-* अगर आपको सांप डसे, बिच्छू काटे और हाथी मारे तो कुछ बुरा मत समझो | आग में जलने और जल में डूबने और पहाड़ से गिरने में भी कोई हानि न समझो , ये सब भले हैं - इनसे हानि नहीं | *हानि और खतरा है दुष्ट की सङ्गति में* इसलिए दुर्जन की संगत मत करो | उसकी सङ्गति अच्छी नहीं | *पर आजकल दुष्टों की बहुतायत है* कदम कदम पर दुर्जनो के दर्शन होते हैं | इसलिए संसार से दुखित और उदासीन मनुष्य के लिए वन में जाकर रहने में ही शान्ति है | इन पंक्तियों के लेखक को भी, जो अनेक बार ऐसा ही चाहने लगता है, इस संसार से दिल लगाना - इसमें रहना अच्छा नहीं मालूम होता |
*सारांश यह है कि* यदि सच्ची सुख शान्ति चाहते हो; तो स्त्री-पुत्र, धन-दौलत और ज़मीन जायदाद की ममता छोड़कर वैराग्य लेलो , यानी इन सबको छोड़कर वन में जा बसो *(यहाँ वन का अर्थ जंगल से न लगाकर हृदय से कामनाओं और अपेक्षाओं का त्याग समझना चाहिए )* और एकमात्र परमात्मा में मन लगाओ | संसार को त्यागने के सिवा, सुख की और राह नहीं | हमने अनेक बार संसार त्यागने का इरादा किया, पर हमारे अज्ञानी मन ने हमें बारम्बार ऐसा करने से रोका | हम मन की बातों को विचार के कांटे पर तोलते रहे | अब हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि मन की सलाह ठीक नहीं | हमारा गन्दा मन हमें शैतान की तरह भ्रमित कर रहा है | जिस सुख की खोज में जीवन के अनगिनत वर्ष यों ही गवां दिए, उस सुख का लेश भी हमें न मिला |
*संसार में रहते हुए भी मन में संसार का विस्तार न होना ही सच्चा वैराग्य है |*
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*!! भर्तृहरि विरचित "वैराग्य शतकम्" नवदश भाग: !!*