अपनी मान्यताओं में फँसा मनुष्य शेष सब भूल जाता है। उसे अच्छाई और बुराई का भान भी नहीं रहता। यद्यपि अपनी रूढ़ियों में जकड़ा मनुष्य अपने सुविचारों अथवा कुविचारों का उत्तरदायी स्वयं होता है। जो भी सुनो अथवा पढ़ो, उसे पहले अपनी तर्क की कसौटी पर कसना चाहिए। यदि वह विचार खरा उतरे और अपना विवेक उसे मानने की गवाही दे तभी अपनाना चाहिए अन्यथा उसे भूल जाना चाहिए।
इसी प्रकार की एक मान्यता पर हम बोधकथा के माध्यम से चर्चा करते हैं। लोग कहते हैं कि गंगा आदि नदियों में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। कहते हैं कि एक ऋषि गंगा नदी में स्नान करते हुए उसका स्तुतिगान कर रहे थे। सहसा उन्हें ध्यान आया कि पतित पावनी माँ गंगा में बहुत से लोग आकर अपने पाप धोते हैं। इसका यही अर्थ हुआ कि उन लोगों के सारे पाप एकत्र होकर गंगाजी में समा गए हैं और गंगाजी भी पापी हो गईं हैं। उन्हें माँ गंगा का पापी होने वाला विचार बहुत अखरा। ये पाप आखिर कहाँ जाते हैं? इस रहस्य जानने के लिए उन्होंने तपस्या करने का निर्णय किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देव उनके समक्ष प्रकट हुए। ऋषि ने उनसे पूछा- 'भगवन, लोगों के जो पाप गंगाजी में धोए जाते हैं, वे कहाँ जाते हैं?'
उन्होंने कहा- 'चलो, गंगाजी से ही पूछ लेते हैं।'
वे दोनों लोग गंगाजी के पास गए और बोले- 'हे गंगे! लोग आपके जल में अपने पाप धोते है तो इसका मतलब हुआ कि आप भी पापी हैं।'
माँ गंगा ने उत्तर दिया- 'मैं क्यों पापी होने लगी? मैं अपने पास आए सारे पापों की गठरी समुद्र को जाकर सौंप देती हूँ।'
यह सुनकर दोनों समुद्र के पास गए और उनसे बोले- हे 'सागर! गंगाजी आपको पाप समर्पित करती हैं तो इसका अर्थ हुआ कि आप पापी बन गए हैं।'
समुद्र ने रुष्ट होते हुए कहा- 'मैं कैसे पापी बन गया? मै उन सारे पापों को भाप में बदलकर बादल को देता हूँ।'
वहाँ से वे दोनों बादल के पास गए और उनसे बोले- हे 'बादल! समुद्र पापों को भाप बनाकर आपको दे देता हैं, इसका यही अभिप्राय हुआ कि आप पापी हैं।'
बादल ने नाराज होते हुए कहा- हम पापी कैसे हो गए? हम उन सारे पापों को जल के रूप में बरसाकर धरती पर वापिस भेज देते हैं, जिससे किसान अन्न उपजाता है। वही अन्न मनुष्य खाता है। अन्न जिस मानसिक स्थिति से उत्पन्न किया जाता है, जिस सद् वृत्ति या कुवृत्ति से कमाया जाता है, जिस अवस्था में खाया जाता है, उसी के अनुसार उस मनुष्य की मानसिक स्थिति बन जाती है।
इस कथा का अर्थ यही है कि जो भी कर्म मनुष्य करता है, वे लौटकर उसी के पास आ जाते हैं। इसीलिए मनीषी हमें समझते हुए कहते हैं-
'जैसा खाओ अन्न, वैसा बनता मन।'
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अन्न को मनुष्य किस तरह कमाता है। यदि कठोर परिश्रम करके, ईमानदारी से कमाता है तो उत्तम है। यदि अपनी मेहनत की कमाई के धन से अन्न खरीदा जाता है, तभी घर के सभी सदस्यों के विचारों में शुद्धता रहती है। वहाँ सन्तान आज्ञाकारी और माता-पिता की सेवा करने वाली होती है। धन की यदि कमी हो तो भी घर में सदा हर प्रकार से खुशहाली बनी रहती है।
इसके विपरीत चोरी, भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी, किसी को कष्ट देकर धन कमाया जाता है तो उस घर में कलह-क्लेश रहता है। वहाँ बच्चों में भी अच्छे संस्कार नहीं आते। सब कुछ होते हुए भी घर नरक की तरह दुखदायी बन जाता है। हर व्यक्ति दूसरे के प्रति असहिष्णु बन जाता है। यानी जैसा अन्न खाया जाता है वैसे ही घर के लोगों के विचार बन जाते हैं।
इसलिए इस मिथ से बाहर निकलिए कि मनुष्य के किए हुए पाप धुल जाते हैं। जो भी अच्छा या बुरा कर्म मनुष्य करता है, उसका फल भोगने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। उसे कोई शक्ति, कोई तन्त्र-मन्त्र, कोई तथाकथित गुरु उससे बचा नहीं सकते। इसलिए स्वयं ही सावधान हो जाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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