दुनिया दो प्रकार की है- एक खुदा की और दूसरी खुदी की। कहने का तात्पर्य यही है कि इस संसार में दो तरह की शक्तियाँ काम करती हैं- एक भक्ति वाली और दूसरी माया वाली।
अर्थात यह संसार ईश्वर की सुन्दर रचना है। उसका गुणगान करते हम नहीं थकते। यह भक्ति वाली शक्ति कहलाती है।
दूसरी ओर मानव अपने इर्द-गिर्द मोह-माया की दीवारें खड़ी कर लेता है। उसके अनुसार उसकी यह सृष्टि बहुत ही मनमोहक है। इसका नुक्सान उसे स्वयं ही उठाना पड़ता है। यह माया वाली शक्ति कही जाती है।
वैसे तो मनुष्य मोहमाया के जाल में फंसा रहता है। मैं, मेरा घर, मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरा व्यापार या नौकरी- बस यही उसकी दुनिया है जिसके लिए वह जीता है और खटता है। उसके आगे न तो वह कुछ सोचना चाहता है और न ही कुछ समझना चाहता है। इस संसार के इतने आकर्षण हैं कि मनुष्य उन्हीं में खोया रहता है। उनसे फुर्सत पाए तो उसे अपने बारे में सोचने का मौका मिले।
जितने समय के लिए उसे इस संसार में जीवन मिलता है, वह बस इसी धुन में रहता है कि अधिक से अधिक धन-सम्पत्ति का संग्रह कर लूँ, अपने व अपनों के लिए सुविधाएँ बटोर ले। इसी चक्कर में अपनी सुधबुध खोकर वह कोल्हू का बैल बन जाता है। जब उसे थोड़ा-सा साँस लेने का समय आता है, उसका इस दुनिया से विदा लेने का समय आ जाता है। तब तक वह चेतता नहीं है।
माया के मजबूत किले में वह अनचाहे गिरफ्तार हो जाता है। इस किले से मनुष्य की रिहाई नामुमकिन तो नहीं पर कठिन अवश्य है। वह स्वयं जब तक संसार के कारोबार से स्वयं को जोड़े रखता है तब तक वह विषय-वासनाओं की उस दलदल में धंसता चला जाता है। वहाँ से बाहर निकल पाना उसके बूते की बात नहीं रह जाती। फिर तो कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है जैसे वाल्मीकि, अंगुलीमाल आदि डाकुओं की काया पलट हो गई थी।
ईश्वर की बनाई सृष्टि हर जीव की अपनी सृष्टि है। उसमें सदा ईशवरीय सत्ता का ही राज्य चलता है। मनुष्य यदि यह सोचने लगे कि वह बहुत बड़ा तपस्वी बन गया है या बहुत शक्तिशाली है अथवा हर प्रकार से साधन सम्पन्न है, इसलिए वह ईश्वरीय सत्ता को चुनौती देने में समर्थ हो गया है। यह उसकी बालसुलभ चेष्टा है। जिसे हम उसकी मूर्खता या नादानी कह सकते हैं। रावण, हिरण्यकश्यप जैसे हजारों-लाखों का एक ही अन्त होता है जो किसी भी तरह अच्छा नहीं कहा जा सकता।
मनुष्य चाहे कितनी नगरियाँ बसा ले, वह उस मालिक के समान यत्न करने पर भी नहीं बन सकता। अहंकारवश अपनी मूँछों को ताव देता हुआ, विष दन्त निकाले हुए साँप की तरह फुँफकार सकता है। हाँ, ऐसा करने का अथक प्रयास कर सकता है पर ईश्वर जिसका सहाय हो, ऐसे किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सिर्फ दाँत किटकिटाता और मन मसोसता हुआ रह जाता है।
सत्ता उसी मालिक की ही चलती है, इन्सान चाहे भी तो उसकी बराबरी में खड़ा होने की उसकी औकात नहीं है। वह अपने बनाए बिछाए भ्रमजाल में प्रसन्न हो सकता है, आनन्द मना सकता है। आखिर में उसे अपने अच्छे या बुरे सभी कर्मों का हिसाब तो उसी परम सत्ता को ही देना पड़ता है। वहाँ यह कहने की उसकी सामर्थ्य है क्या कि मैं तुझे हिसाब नहीं दूँगा?
मनुष्य कितना भी फनेखाँ बन जाए, स्वयं को स्वयंभू कह ले उसकी बनाई हुई माया नगरी यहीं धरी की धरी रह जाती है।ऐसे कितने आए और कितने गए, सब इतिहास के पन्नों में दफन होकर रह गए। इसलिए विद्वान ज्ञानी जन ईश्वर की दुनिया से टकराने के बजाए, उसे शीश नवाते हैं। अपने इहलोक व परलोक को सुधारने के लिए उसकी सच्चे मन से आराधना करते हैं। उस मालिक की सृष्टि और भक्ति ही सत्य है, शेष मनुष्य की माया और उसकी शक्ति सब बौने हैं, मिथ्या हैं, छलावा हैं। इनके गर्व से यथासम्भव बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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