अनेक कुरीतियों ने हमारे भारतीय समाज में अपनी पैठ बना ली हैं। उनमें से एक है दहेज। इसने दानव का रूप ले लिया है। सुरसा के मुँह की तरह इसका चलन बढ़ता ही जा रहा है। इसका अन्त कभी हो सकेगा, इसकी सम्भावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। कन्या भ्रूण हत्या का एक कारण शायद यह भी है। जिन घरों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है, वहाँ बेटी को दहेज देने में कोई समस्या नहीं आती। परन्तु जहाँ घर की मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना ही कठिन होता है, वहाँ दहेज देना या वरपक्ष की माँग को पूर्ण करना असम्भव-सा हो जाता है।
प्राचीनकाल में जब नवयुवक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त किसी सदगृहस्थ के पास जाकर उसकी कन्या से विवाह करने की इच्छा प्रकट करता था तो कन्या के माता-पिता घर-गृहस्थी की आवश्यकता का सामान उन्हें भेंट में देते थे। धीरे-धीरे यह प्रथा दहेज के नाम से जानी जाने लगी। इसमें बहुत-सी बुराइयों ने जन्म ले लिया है। जिनके पास धन-सम्पदा की प्रचुरता है, वे बेटी के विवाह में करोड़ों भी खर्च देते हैं तो उन्हें बिल्कुल भी अन्तर नहीं पड़ता। बहुत से ऐसे परिवार हैं जो विवाह आदि उत्सवों के लिए अपनी फसल पर निर्भर करते हैं। और भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपना घर बेचकर अथवा कर्ज लेकर बेटी की शादी करते हैं। सारी आयु वे उस कर्ज चुकाने में लगा देते हैं और अपने जीवन को नरक बना लेते हैं।
इस विषय से सम्बन्धित एक घटना की चर्चा करना चाहती हूँ जिसे कुछ दिन पूर्व पढ़ा था। उसमें लेखक का नाम नहीं लिखा हुआ था। यह घटना वास्तव में सबके लिए प्रेरणादायक है।
सुनीता की छोटी बहन ने अपने पापा को आवाज लगाते हुए कहा- "पापा, पापा! सुनीता दीदी के होने वाले ससुर आज घर आ रहे है।"
दीनदयाल जी पहले से ही उदास बैठे थे धीरे से बोले- "बेटी उनका कल ही फोन आया था बोले दहेज के बारे में आप से बात करनी है। बड़ी मुश्किल से यह अच्छा लड़का मिला था, कल को उनकी दहेज की माँग पूरी नही कर पाया तो क्या होगा?"
घर के प्रत्येक सदस्य के मन व चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। लड़के के पिताजी घर आए। जैसे ही उन्हें पाइन के लिए पानी दिया गया, त्योंहि उन्होंने अपनी कुर्सी दीनदयाल जी की ओर सरकाई और धीरे से बोले- "दीनदयाल जी मुझे दहेज के बारे बात करनी है।"
दीनदयाल जी हाथ जोड़ते हुए बोले- "बताइए समधी जी।"
समधी ने धीरे से दीनदयाल जी का हाथ दबाते हुए बस इतना ही कहा- "आप दहेज में जो कुछ भी देगें, वह मुझे स्वीकार है पर कर्ज लेकर दहेज मत देना क्योकि जो बेटी अपने बाप को कर्ज में डुबो दे, वैसी 'कर्ज वाली लक्ष्मी' मुझे स्वीकार नहीं।"
इस घटना में लड़के के पिता की सोच और उनका व्यवहार वास्तव में प्रशंसनीय है। अपने सम्बन्धियों के सुख-दुख का ध्यान रखना ही चाहिए अन्यथा सम्बन्धों के बनने के पहले ही उनमें खटास आ जाती है। फिर आयुपर्यन्त दोनों पक्षों में सम्बन्ध मधुर नहीं हो सकते। बहुत बार ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जहाँ बारात के द्वार पर पहुँचने के उपरान्त वर पक्ष की अनुचित माँग के कारण वधु ने उस लालची परिवार में विवाह करने से इन्कार कर दिया और उन लालची लोगों को पुलिस के हवाले कर दिया।
दहेज के कारण होने वाली असमय मौतों का प्रतिशत दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। इससे भी बढ़कर नृशंसता तब होती है जब किसी मासूम को दहेज के नाम पर बलि चढ़ा दिया जाता है अथवा उसे जिन्दा जला दिया जाता है। यह समस्या समाज के लिए कोढ़ है, इसका उन्मूलन करने के लिए युवा पीढ़ी को आगे आना चाहिए। बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि आजकल बहुत-सी लड़कियाँ ऐसी भी मिल जाएँगी जो सोचती हैं कि सारी जयदाद माता-पिता जब भाई को ही देंगे तो वे विवाह के अवसर पर उनसे क्यों न अधिक-से-अधिक खर्च करवाएँ।
अपने माता-पिता को परेशान करने के स्थान पर बेटियों को उनका सहारा बनना चाहिए। यदि वे अच्छा वेतन पाती हैं तो उन्हें बिल्कुल इस बुराई का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। सबके सम्मिलित प्रयास से ही इस कोढ़ का इलाज सम्भव हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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