मन, वचन और कर्म से किसी का अहित न करना, किसी का दिल न दुखाना सबसे बड़ा धर्म कहलाता है। इससे बढ़कर और कोई पुण्य का कार्य नहीं होता। इस एक विचार में ही जीवन का सार निहित है। यदि मनुष्य यह सोच ले कि मृत्यु का कोई पता नहीं कि वह कब आ जाए, इसलिए अपने जीवनकाल में ऐसे कर्म कर लेने चाहिए जिससे उसे कभी प्रायश्चित न करना पड़े। उसके जीने का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाए।
जब मनुष्य की सोच, उसकी कथनी और करनी में समरसता नहीं होती तब तक उसकी बात का प्रभाव दूसरों पर नहीं पड़ता। पहले अपने जीवन में इन्हें ढालना पड़ता है यानी स्वयं तपना पड़ता है, तभी सामने वाले उसकी कही हुई शिक्षा को आत्मसात करके उस पर आचरण करते हैं।
सन्तों के नाम पर इस तरह की कथाएँ जुड़ी रहती हैं। सन्त तुकाराम जी के साथ जुड़ी इस कथा को अंजलि मौर्य और अनिल पचौरी दोनों ने इसे फ़ेसबुक पर पोस्ट किया था। यह कथा मुझे बहुत पसन्द आई इसलिए इसे आप सबके समक्ष रख रही हूँ।
सन्त तुकाराम अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी स्वभाव से थोड़ा क्रोधी उनका शिष्य उनके पास आकर बोला- "गुरुजी, आप अपना व्यवहार इतना मधुर बनाए रखते हैं। न आप किसी पर क्रोध करते हैं और न ही किसी को भला-बुरा कहते हैं? कृपया अपने इस सद व्यवहार का रहस्य बताइए?"
सन्त बोले- "अपने रहस्य के बारे में तो मैं नहीं जानता, पर तुम्हारा रहस्य जानता हूँ।"
“मेरा रहस्य क्या है गुरु जी?” शिष्य ने आश्चर्य से पूछा।
”तुम अगले एक हफ्ते में मरने वाले हो।” सन्त तुकाराम दुखी होते हुए बोले।
कोई और कहता तो शिष्य इस बात को मजाक में टाल देता पर गुरु के मुख से निकली बात को कैसे झुठला सकता था? वह उदास हो गया और गुरु जी का आशीर्वाद लेकर वहाँ से चला गया। उसके बाद उस शिष्य का स्वभाव बिलकुल बदल गया। वह सबसे प्रेम से मिलता, कभी किसी पर क्रोध नहीं करता। अपना अधिकतर समय ईश्वर के ध्यान और पूजा में लगाता। जिनके साथ उसने कभी गलत व्यवहार किया था, उनसे जाकर वह माफी माँगता।
देखते-ही-देखते सन्त की भविष्यवाणी को एक हफ्ते होने को आया। शिष्य ने सोचा चलो एक आखिरी बार गुरु जी के दर्शन करके उनका आशीर्वाद लेता हूँ। वह उनके समक्ष पहुँचा और बोला- "गुरुजी, मेरा समय पूरा होने वाला है, कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिए।”
उन्होंने कहा- "पुत्र, मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। यह बताओ कि पिछले सात दिन तुमने कैसे बिताए? क्या तुम पहले की तरह ही लोगों से नाराज हुए, उन्हें अपशब्द कहे?”
“नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ सात दिन थे, मैं इसे बेकार की बातों में कैसे गँवा सकता था? मैं तो सबसे प्रेम से मिला और जिन लोगों का कभी दिल दुखाया था उनसे क्षमा भी माँगी,” शिष्य तत्परता से बोला।
सन्त तुकाराम मुस्कुराए और बोले- “बस यही है मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य। मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी मर सकता हूँ, इसलिए मैं हर किसी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हूँ।"
शिष्य समझ गया कि उसके गुरु ने उसे जीवन का यह पाठ पढ़ाने के लिए ही मृत्यु का भय दिखाया था।
यह कथा हमें समझाना चाहती है कि यथासम्भव मनुष्य को सबके साथ प्रेमपूर्ण और सौहार्दपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। व्यर्थ क्रोध करके अपनी शक्तियों का ह्रास नहीं करना चाहिए। क्रोध मनुष्य के विवेक का हरण करता है और उसे कभी चैन से नहीं बैठने देता। यही कारण है कि इसे सबसे बड़ा आन्तरिक शत्रु कहा जाता है। इसे वश में करना असम्भव तो नहीं कठिन अवश्य होता है। फिर भी प्रयास करते रहना चाहिए और सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। दूसरों को कोसते रहने या भला-बुरा कहने से स्वयं को भी मानसिक क्लेश होता है। अतः इससे बचा जा सके तो बहुत अच्छा होगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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