'सब जीते जी की माया है' या 'मुँह देखे की माया है' ऐसी उक्तियाँ हमें प्रायः सुनने को मिल जाती हैं। इनके पीछे छिपा सार बहुत ही गम्भीर और मन को कष्ट देने वाला होता है। अपनों से जाने-अनजाने दूरी बन जाती है परन्तु सामने पड़ जाने पर ऐसे प्रदर्शित किया जाता है कि उस व्यक्ति विशेष से बढ़कर इस दुनिया में कोई और सगा है ही नहीं। उस समय मनुष्य का मन आह्लादित होने के स्थान पर मनन करने के लिए विवश हो जाता है।
बहुत विचित्र है इस दुनिया का दस्तूर है कि कोई व्यक्ति कितना भी प्रिय हो, उसके बिना जीने की कल्पना करना भी चाहे कठिन हो, उसकी मृत्यु के बारे में सोचने मात्र से ही बेशक दिल दहल जाता हो। परन्तु वास्तविकता कुछ अलग ही बयान करती है। अपना प्रियतम व्यक्ति जब काल के गाल में समा जाता है, तब उसे कुछ समय भी सहन करना दुश्वार हो जाता है। उसे घर से निकालने के लिए मनुष्य बेसब्र हो जाता है।
उस समय कोई हमदर्द या सगा नहीं रह जाता। जिसे काँटा चुभने पर या जरा-सी चोट लगने पर हम बेचैन हो जाते हैं, सारा घर सिर पर उठा लेते हैं, उसी लाश बन चुके व्यक्ति को शमशान में ले जाकर, शीघ्र ही उसे अग्नि के सुपुर्द करने में हम समय नहीं लगते। तब उसे अपने उसी घर से ही बेदखल कर देते हैं जिसे उसने बहुत ही हसरतों से बनाया होता है। यह वही समय होता है जब अपने लोग ही पूछ्ने लगते हैं कि अभी और कितना समय लगेगा इसके संस्कार में। इससे विचित्र और क्या हो सकता है इस संसार में?
अपना कहे जाना वाला मनुष्य भी ऐसी अवस्था में पराया हो जाता है। उसके साथ किसी को भी सुहानुभूति शेष नहीं बचती। उससे छुटकारा पाने का हर सम्भव प्रयास देखते-ही-देखते शीघ्र कर लिया जाता है। फिर कहते हैं-
आज मरे कल दूसरा दिन।
मनुष्य नहीं, उसकी यादें शेष अवश्य बच जाती हैं। उन्हें अपने हृदय में संजोकर रख लिया जाता है।
मनुष्य को अपने जीवनकाल में ऐसे कार्य कर लेने चाहिए कि उसकी मृत्यु के बाद भी लोग उसका नाम सम्मान से लें, हिकारत से नहीं। जो लोग अपने जीवन में कुछ विशेष नहीं कर पाते बल्कि उनका जीवन समाज के लिए भार बन जाता है, वे जीते-जी मर जाते हैं। ऐसे लोग दूसरों को कष्ट देते हैं, उनको पीड़ा देकर सुख का अनुभव करते हैं। ये देश, धर्म, घर-परिवार और समाज के विरोधी कार्य करने में परहेज नहीं करते। अमानवीय कार्य करने वालों का नाम भी कोई अपनी जिह्वा से नहीं लेना चाहता। ऐसे लोगों का होना-न-होना एक बराबर होता है।
इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपना जीवन जीने में असमर्थ रहते हैं यानी सारा जीवन अभावों में जीते हैं। वे न अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण कर पाते हैं और न ही अपने परिवारी जनों की आवश्यकताओं को। ऐसे लोगों का जन्म भी इस संसार में भार की तरह होता है। ये लोग समाज में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाते। इसलिए इनका जीवन मृत तुल्य कहलाता है।
इनके अतिरिक्त कुछ लोग मर कर भी अमर हो जाते हैं। ये वही लोग होते हैं जो अपना जीवन देश, धर्म, समाज को समर्पित कर देते हैं। सहृदय, परोपकारी, दयावान लोग इस संसार की वास्तविक पूँजी होते हैं। अपने सद् कृत्यों के कारण मरणोपरान्त भी युगों-युगों तक याद किए जाते हैं। अपने आदशों का पालन करने वाले ये लोग वास्तव में जीवन जीते हैं। इन्हीं लोगों की बदौलत समाज चलता है।
जीवन उन्हीं लोगों का सफल होता है जो समाज के दिग्दर्शक बनते हैं। आने वाली पीढ़ियाँ उनके कार्यों के कारण युगों तक उन पर मान करती हैं। जीवन और मृत्यु शाश्वत हैं। इन दोनों को मात देकर अमर हो जाने वाले ही महापुरुष कहलाते हैं। ऐसे ही लोगों का जन्म धरा पर सफल होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp