आयुपर्यन्त भागदौड़ करके बहुत ही मेहनत से जीवन में हम धन कमाते हैं। उस धन का सदुपयोग करते हुए अपने पारिवारिक, धार्मिक व सामाजिक दायित्वों को निभाते हैं। बच्चों को समाज में उनका उचित स्थान दिलाने के लिए भरसक यत्न करते हैं। हम अपने उद्देश्यों में बहुत सीमा तक सफल भी होते हैं।
अपनी सारी जिम्मेवारियों को निभाते हुए हम भारतीय यह कदापि नहीं भूलते कि धूप-छाँव या अपने अच्छे-बुरे समय के लिए थोड़ा धन बचा कर रखना चाहिए। इससे भी बढ़कर हम यह चाहते हैं कि वृद्धावस्था के लिए भी हमारे पास कुछ धन सुरक्षित रहे जिससे पराश्रित न होना पड़े। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का मुँह न ताकना पड़े या फिर बच्चों के समक्ष भी हाथ न फैलाना पड़े। अपने सिर पर छत भी ईश्वर की कृपा से बनी रहे।
हमारी भारतीय विचारधारा बहुत गहराई से जीवन के हर मोड़ पर हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। यही कारण है जिस समय पूरा विश्व मंदी के दौर से गुजर रहा था उस समय अमेरिका जैसे वैभवशाली देश के कई बैंक डूब गए थे। हमारे देश में चाहे गरीबी का प्रतिशत अधिक है फिर भी हमारी अर्थ व्यवस्था चरमराई नहीं। थोड़ी परेशानी तो अवश्य हुई पर देश मंदी में भी उभर गया। उसका कारण था देशवासियों की छोटी-बड़ी बचतें जो लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार करते रहते हैं।
इस बचत अभियान की बदौतल ही हम अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। कुछ चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए वाली सोच वाले भी होते हैं जो खाने-पहनने हर जगह कंजूसी करते हुए बस जोड़ने में ही लगे रहते हैं।
कुछ लोग चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार, दुराचार, नीति-अनीति का मार्ग अपनाकर दूसरों का गला काटकर भी धन बटोरने की जुगत करते रहते हैं। हर प्रकार के टैक्स की चोरी से भी बाज नहीं आते।
वे कहते हैं हमने अपनी पीढ़ियों की सुरक्षा का प्रबंध कर लिया है पर वे भूल जाते हैं-
पूत कपूत तो कि धन संचै पूत सपूत तो का धन संचै।
अर्थ यह है कि संतान योग्य होगी तो हम से भी अधिक कमा लेगी और यदि नालायक निकली तो सब बरबाद कर देगी। इसलिए जो सच्चाई व ईमानदारी से कमाया जाए अर्थात जो सात्विक कमाई होती है बरकत उसी में होती है।
धन कमाकर हम धन-संपत्ति बढ़ाते जाते हैं। भौतिक पदार्थों यानी कि गाड़ी, वस्त्र, जूते-चप्पल, पर्स और ऐशोआराम के साधन हम जुटाते रहते हैं जिन सबका उपभोग भी हम नहीं कर पाते।
हमारी मृत्यु के पश्चात सब कुछ यहीं रह जाता है। हमारा जमा धन जिसकी जानकारी पत्नी-बच्चों को हो तो ठीक नहीं तो बैंक में ही पड़ा रहता है। जब तक जीवित रहते हैं तब तक हमें लगता है कि हमारे पास जो पैसा है वह कम है और उसे बढ़ाने के चक्कर में कोल्हू का बैल बन जाते हैं।
धन से हम भौतिक पदार्थों- कपडे़, जेवर, जूते, धन-संपत्ति, ठाठबाट, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि जुटा सकते हैं परन्तु स्वास्थ्य, प्रसन्नता, रिश्ते-नाते आदि नहीं खरीद सकते। जीते जी इन सब पर भी ध्यान देना आवश्यक है अन्यथा मन में मलाल रह जाता है।
धन जीवन जीने के लिए बहुत आवश्यक है उससे से बहुत कुछ कर सकते हैं पर उसे सिर पर न सवार होने दें। रावण की तरह अहंकार को अपने पास भी न फटकने दें। तभी सही मायने में जीवन का आनन्द ले सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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