वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी को परस्पर एक-दूसरे से मुकाबला या शत्रुता का भाव नहीं रखना चाहिए अपितु आपसी प्यार और विश्वास के साथ एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण करते हुए एकसाथ अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। उनके सम्बन्धों में नफरत न होकर प्रेम और आदर का भाव होना चाहिए। उन दोनों के सम्बन्ध में सच्चाई और ईमानदारी का व्यवहार सदा होना चाहिए। किसी भी कारण से बोला गया एक झूठ भी आपसी प्यार और विश्वास को तार-तार करके रख देता है।
स्त्री का पुरुष से और पुरुष का स्त्री से मुकाबला करना उचित नहीं होता। किसी को भी कमतर समझना ईश्वर की बनाई रचना पर प्रश्न खड़ा करने जैसा कहा जा सकता है। वे दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। कुछ कमियाँ पुरुष में होतीं हैं तो कुछ स्त्री में। उन कमियों और अच्छाइयों को साथ लेकर चलने से ही गृहस्थी अच्छे से चलती है। अन्यथा प्रतिदिन ही दोनों में जूतमपैजार होती रहती है। घर का सुख-चैन नौ दो ग्यारह हो जाता है, वहाँ शमशान-सी शान्ति रहती है या फिर भयानक विस्फोट होता रहता है। दोनों ही स्थितियों को चिन्ताजनक कहा जा सकता है।
पत्नी यदि पति के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलती है तो पति भी उसकी सुरक्षा के लिए कटिबद्ध रहता है। उस स्थिति के विषय में कल्पना कीजिए जब देर-सवेर पत्नी को किसी आवश्यक कार्य के लिए जाना पड़ जाए तो उसका जीवनसाथी उसका साथ देने के लिए उसके साथ चल पड़ता है, उसे अकेले नहीं जाने देता। यदि कभी सुनसान रास्ते पर चलना पड़े तो वह पत्नी से एक कदम आगे चलता है। पहाड़ों पर घूमने के लिए जब वे दोनों जाते हैं तो चढ़ते और उतरते समय वह पत्नी का हाथ पकड़कर चलता है ताकि उसका पैर न फिसल जाए। साथी का यह व्यवहार पत्नी के लिए वाकई बहुत ही सुखद होता है। वह उसकी सुरक्षा करने का यत्न जी जान से करता है।
प्रायः पति अपनी पति के साथ मिलकर घर-परिवार या बच्चों की सारी जरूरतों को पूर्ण करने का हरसम्भव प्रयास कार्य है। वह चाहता है कि उनके बच्चे हर प्रकार से सफलता की ऊंचाइयों को छुएँ। पति-पत्नी में परस्पर विश्वास हो तो पति की विशाल भुजाएँ व सीना
पत्नी के सारे गमों में सहारा बनता है। पत्नी यदि पति के साथ कन्धा मिलाकर चलती है तो वह भी हर कदम पर उसका साथ देता है। वह हर परिस्थिति में अपने जीवन साथी की ढाल बनता है।
अनुभवजन्य है कि यात्रा करते समय सामान का सारा बोझ वह अपने दोनों कंधों पर बिना हिचके स्वयं उठाता है। इसी प्रकार घर में भी भारी वस्तुओं को दूसरी जगह पर वह रखता है। इन कामों को करते समय पत्नी का सहयोग बिना कोई अहसान किए, अपना दायित्व समझकर करता है। पत्नी यदि अकेले यात्रा से लौट रही हो तो उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट जाता है, फिर प्लेन या रेल के लेट हो जाने पर बिना शिकवा किए वहाँ प्रतीक्षा करता है।
भारतीय संस्कृति में पति और पत्नी का यह रिश्ता कुछ समय का नहीं अपितु सात जन्मों का माना जाता है। यानी यह रिश्ता शेष अन्य सभी रिश्तों से बढ़कर होता है। इसकी गहराई समझने के लिए एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण होना आवश्यक होता है। इसलिए इन्हें दो जिस्म और एक जान कहा जाता है।
आजकल कुछ तथाकथित नारी मुक्ति या महिला अधिकारों की चर्चा करने वाली स्त्रियाँ पुरुषों की बराबरी करने की मुहिम चला रही हैं। स्त्री पुरुष को जन्म देने, घर-गृहस्थी को चलाने, बच्चों को संस्कारित करने के कारण उससे श्रेष्ठ है, महान है। फिर उसे पुरुष से बराबरी करने की आवश्यकता क्योंकर है। घर-परिवार की चिन्ता छोड़कर हर दूसरे दिन देर तक बाहर रहकर आखिर वे क्या सिद्ध करना चाहती हैं? वे भूल जाती हैं कि घर पर पति व बच्चे उनके न होने पर परेशान होते हैं। उस चक्कर में वे अपने घर की सुरक्षा घेरे ही सेंध लगा देती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता की नारी उच्छृंखल बन जाए और तटबन्ध टूटी नदी की तरह अपनी सारी वर्जनाएँ तोड़ दे। इससे भी बढ़कर विवाहेत्तर सम्बन्ध दोनों में से किसी के भी स्वीकार्य नहीं किए जा सकते।
इसका दुष्परिणाम बहुत कष्टदायी होगा। पुरुष से बराबरी करने या आगे चलने की जिद में वह अपनी ही हानि कर रही है। स्त्री जब स्वयं खुदमुख्तार बन जाएगी तब यदि पुरुष अपना कदम स्वयं पीछे कर लेगा तो उसकी स्थिति बद से बदत्तर हो जाएगी। स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। उनके मध्य कोई स्पर्धा नहीं होनी चाहिए। इसलिए पति और पत्नी को एक रथ के दो पहियों की तरह अपनी घर-गृहस्थी की गाड़ी को चलाना चाहिए। इसके लिए यदि मन को मारकर समझौता भी करना पड़े तो हिचकिचाना नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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