धर्म-कर्म, पूजा-पाठ आदि प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है। किसी दूसरे को इसमें दखलअंदाजी करने का कोई अधिकार नहीं है। कौन किस धर्म या सम्प्रदाय को मानता है या किस विशेष देवी-देवता की आराधना करता है इसे व्यक्ति विशेष को ही विचार करने दें तो अधिक उपयुक्त होगा।
कोई सकार ईश्वर की उपासना करता है और कोई निराकार की। कोई कर्मकाण्ड करता है, ईश्वर को नवधा भक्ति से रिझाने का यत्न करता है तो कोई केवल योग के माध्यम से उस तक पहुँचना चाहता है और कोई मात्र जप-तप का मार्ग अपनाता है। कहने का अर्थ है तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र किसी भी मार्ग को अपनाकर प्रभु तक पहुँचने के लिए मानव यत्नशील है। किसी भी मार्ग को अनुचित कहना शोभनीय नहीं है। यह जरूरी नहीं कि हम दूसरे व्यक्ति की सोच से सहमत हों।
विश्व में अनेकों धर्म हैं और उनकी अनुपालना करने वाले भी असंख्य लोग हैं। इसमें झगड़े वाली कोई बात है ही नहीं। ये सभी धर्म मानव के उत्थान की चर्चा करते हैं। उसे यही समझाते हैं कि ईश्वर को पाना ही उसका अंतिम लक्ष्य है।
वह ईश्वर एक है उसका हम अनेकानेक नामों से स्मरण करते हैं। वेद कहता है-
एको हि सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
अर्थात् ईश्वर एक है उसे विद्वान अलग-अलग नामों से संबोधित करते हैं।
इस विषय में हम एक भौतिक उदाहरण लेते हैं। व्यक्ति एक है पर उसे बेटा, मित्र, पिता, भाई, मामा, चाचा, ताऊ, दादा, पति, फूफा, मौसा आदि उसके अनेक संबोधन हैं। इन सबके अतिरिक्त उसके कार्यक्षेत्र के अनुसार भी कई अन्य नामों से अभिहित किया जाता है। जब एक सांसारिक व्यक्ति को हम इतने नाम दे सकते हैं तो जिसने ऐसे अरबों-खरबों जीवों को उत्पन्न किया हैं उसके असंख्य नाम होना तो स्वाभाविक ही है।
सभी धर्म उस प्रभु तक पहुँचने का मार्ग मात्र हैं। इसलिए सभी धर्म समान हैं तथा उनकी श्रेष्ठता से इंकार नहीं किया जा सकता।
मान लीजिए हमने अपने देश भारत की राजधानी दिल्ली जाना है। बताइए कैसे जाएँ? रेल से, बस से, हवाई जहाज से, अपनी कार से या अन्य कोई और ट्रक-टेम्पो आदि वाहन हो सकता है। इनमें से किसी भी साधन से देश या विश्व के किसी भी कोने से दिल्ली आया जा सकता है।
अनगिनत मार्ग हैं इस भौतिक प्रदेश में पहुँचने के लिए। वैसे ही ये सभी धर्म हैं जो अपने-अपने तरीके से उस परमसत्ता तक जाने का मार्ग दर्शाते हैं।
सभी धर्म मानवता, सौहार्द, दया, करुणा, प्राणीमात्र से प्यार करना, अहिंसा आदि मानवोचित गुणों को पालन करने का पाठ पढ़ाते हैं। लड़ाई-झगड़े या नफरत करने की आज्ञा हमें कोई भी धर्म नहीं देता।
कुछ मुट्ठी भर इंसानी दिमाग धर्म के नाम पर नफरत फैलाते हैं जो किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।
किसी भी धर्म को नीचा दिखाकर उन धर्मावलम्बियों का अपमान करना कदापि उचित नहीं। लोगों को लालच देकर या जोर- जबरदस्ती धर्मांतरण करना किसी भी तरह उचित नहीं।
अब यह हमारी मेधा पर निर्भर करता है कि हम उस मार्ग पर चल कर अपना जीवन सफल बना पाते हैं या नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद
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