अन्तरात्मा (आत्मा) की आवाज़ के बारे में हम सबने सुना है। मनीषी मानते हैं कि मनुष्य की स्वयं के अन्तस से एक आवाज आती है। यह वह आवाज है जो केवल वही सुन सकता है। यदि वह उसे सुनकर, उस पर आचरण करता है तो उसकी उन्नति होती है। परन्तु यदि वह उसे अनसुना करता है तो उसकी स्वयं की हानि होती है
सोचने की बात यह है कि आखिर आत्मा की आवाज है क्या? क्या यह सभी मनुष्यों को सुनाई देती है? यह आवाज देता कौन है? यह आवाज हमें कब जगाती है? यह किस प्रकार मनुष्य की उन्नति और अवनति का कारण बनती है?
इस विषय में कहा जा सकता है कि इसे केवल हम ही सुन सकते हैं। हमारे पास बैठा हमारा कोई प्रिय या मित्र तक भी नहीं सुन सकता। यह आवाज कहीं बाहर से नहीं आती बल्कि हमारे अंत:करण से ही आती है। जैसे हम अपनों से बात करके उसे गुप्त रखते हैं ताकि उसकी सिक्रेसी बनी रहे, उसी तरह हमारे अन्तस् से आने आवाज भी गुप्त रहती है इसीलिए यह अन्य किसी व्यक्ति को सुनाई नहीं देती।
यह आवाज हर मनुष्य को सुनाई देती है। इसे हम ईश्वरीय प्रेरणा भी कह सकते हैं। जो मनुष्य इस आवाज को सुनकर उस पर सदैव आचरण करता है, वह कदापि कुमार्गगामी नहीं बन सकता। वह व्यक्ति सन्मार्ग पर ही चलता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति इस आवाज को सुनकर भी अनसुना कर देता है, वह गलत कार्य कर सकता है, ऐसी सम्भावना सदा बनी रहती है।
जब भी हम शुभ कार्य (घर-परिवार, समाज आदि के नियमानुसार कार्य) करते हैं तब हमारे मन में एक प्रकार का उत्साह होता है, खुशी होती है। इसका अर्थ है कि हमारे द्वारा किया जाने वाला कार्य करणीय है अर्थात् करने योग्य है। ये वे कार्य हैं जो हमें मानसिक शान्ति व चैन की जिन्दगी प्रदान करते हैं। इसलिए इन कार्यों को मनुष्य को यत्नपूर्वक सम्पन्न कर लेना चाहिए।
इसके विपरीत जिस कार्य को करते समय हमारे मन में उत्साह नहीं होता, हमारा मन बैचेन होता है, मन को एक प्रकार का डर सताता रहता है कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा? तो वह निश्चित ही अकरणीय(न करने योग्य) कार्य है। यह कार्य घर-परिवार, समाज आदि के नियमों के विरूद्ध किए जाने वाला कार्य है।
मन में होने वाली उथल-पुथल को सदा गहराई से समझने पर हम स्वयं ही ज्ञात कर सकते हैं कि हमें कौन-से कार्य करने चाहिए और किन कार्यों को छोड़ना चाहिए। इसके लिए मनुष्य को अन्तस् से उठने वाली उस आवाज को सुनकर, उस पर अपने विवेक से मनन करना चाहिए। उस समय जो निष्कर्ष निकले उसका अनुसरण यत्नपूर्वक करना चाहिए।
यदि बार-बार हम इस आवाज़ को अनसुना करते रहते हैं तो एक समय ऐसा भी आता है जब उसे सुन ही नहीं पाते। हमारी अन्तरात्मा ईमानदारी से अपना चेतावनी देने का कोई मौका नहीं छोड़ती, बस हम ही ऐसे अहसान फरामोश हैं जो उससे अनजान बन जाते हैं। इस तरह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं।
यदि हम अपनी आत्मा की आवाज को सुनकर उसके अनुसार कार्य करेंगे, तब हम वास्तव में सफलता की सीढ़ियाँ चढेंगे और हमारा मन सदैव प्रफुल्लित रहता है, उत्साहित रहता है। यदि हम अपनी आत्मा की आवाज के विपरीत कार्य करेंगे तो हमारा मन निश्चित ही हमें कचोटेगा, हम निरूत्साहित रहेंगे। हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं इसका निर्णय हमें स्वयं ही करना है। इसलिए हमें अपने मन की, अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनकर उसके अनुसार कार्य करना चाहिए। कह सकते हैं-
सोते को जगाया जा सकता है
जागते को जगाना कठिन है।
चन्द्र प्रभा सूद
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