एक ही जाति में जन्म लेने वाले जीव अलग अलग रूप में सुखी और दुखी होते हैं। इसका आधार जीव के पूर्वजन्म कृत कर्म ही हैं। पाप और पुण्य कर्म जब मिश्रित रूप से किए जाते हैं अर्थात दोनों की संख्या बराबर हो जाती है तब जीव को पुण्य के आधार पर शरीर तो मिल जाता है, परन्तु पाप कर्मों के आधार पर किसी ऐसी जाती में ऐसी जाती में जन्म मिलता है जिसमें उसे दुख और कष्ट अधिक झेलने पड़ते हैं। इस सत्य को इस प्रकार समझने का प्रयास करते हैं।
पुण्यकर्मों और पापकर्मों के समान हो जाने पर जीव का मनुष्य के रूप में जन्म होता है। यहाँ बहुत अधिक असमानता दिखाई देती है। कुछ सौभाग्यशाली लोग तो मानो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिन्दगी पालक-पाँवड़े बिछाए उनकी प्रतीक्षा कर रही होती है। पैदा होते ही बड़ी-बड़ी लक्सरी गाड़ियाँ, व्यापार, नौकर-चाकर, अकूत धन-सम्पदा उनका स्वागत करते दिखाई देते हैं। वे सदा दूसरों पर हकूमत करते हैं। उन्हें जीवन भर पता नहीं चलता कि अभाव किस चिड़िया का नाम है।
दूसरी ओर ऐसे भाग्यहीन लोग भी होते हैं जो आजन्म कठोर परिश्रम करते हैं, परन्तु उन्हें दो जून का खाना भी नसीब नहीं होता। ये लोग मनुष्य का जन्म तो पा जाते हैं पर सारा जीवन एड़ियाँ रगड़ते रहते हैं, उन्हें सुख की एक साँस भी नहीं मिल पाती। जीते जी जीवन की बाजी हार चुके ये लोग स्वयं को इस धरती पर बोझ के समान समझते हैं। अपनी और अपनों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाते। मनुष्य होते हुए भी पशुओं से बदतर जीवन व्यतीत करते हैं।
किसी आत्मा ने किसी भी शरीर में बहुत से पाप कर्म और कुछ पुण्य कर्म किए। उसके पापकर्मों के आधार पर उसे कुत्ते का शरीर मिला और पुर्ण्यो के आधार उसे ऐसा घर मिला जहाँ उसे उत्तम सुख साधन यानी अच्छा भोजन, चिकित्सा आदि प्राप्त हुए। वह उस घर का प्रिय सदस्य बनकर ऐश करता है। गाड़ियों में घूमता है। इसके विपरीत उसी जाति के दूसरे कुत्ते गलियों में भौंकते हुए घूमते रहते हैं। खाने को मिल गया तो ठीक अन्यथा लोगों से पत्थर खाने को तो उसे मिल ही जाते हैं। कोई उन्हें अपने घर के बाहर बैठने तक नहीं देता।
घर के ड्राईंगरूम में सजे हुए एक्वेरियम में उछल-कूद करती मछलियों को यह भी नहीं पता होता कि ऐसा क्यों कहा जाता है-
बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है।
सबके आकर्षण का केन्द्र बनी वे मछलियाँ अपनी ही धुन में मस्त रहती हैं। उन्हें विशाल समुद्र में होने वाली कठिनाइयों की बिल्कुल भी खबर नहीं रहती।
हालांकि मैं पक्षियों को पिजरे में बन्द करने के पक्ष में नहीं हूँ, फिर भी उदाहरण दे रही हूँ। विविध प्रकार के पक्षी जो पिंजरों में रखे जाते हैं, वे सुविधपूर्वक अन्न व जल पाते हैं। वे अन्य स्वतन्त्र पक्षियों की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षित रहते हैं। उन्हें मौसम के थपेड़ों को भी सहन नहीं करना पड़ता। ये पक्षी भी आगन्तुकों के आकर्षण का केन्द्र बनते हैं।
इसी प्रकार अन्य पालतू पशुओं गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा, गधा आदि के विषय में भी विचार कर सकते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि इन सभी जीवों की देखभाल, उनके खानपान, उनके उपचार आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है। वन्य पशु स्वतन्त्र विचरण करते हैं परन्तु उनकी ओर तो किसी का ध्यान नहीं जाता। वे सभी केवल ईश्वर के भरोसे जीवन व्यतीत करते हैं।
इस सारी विवेचना का सार यही है कि सब सुख-साधन जीव को उसके पुण्यकर्मों की बदौलत प्राप्त होते हैं। इसलिए कर्म ही मुख्य कारण हैं। अपने कर्मों की शुचिता की ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। इन्हीं से ही जीव का इहलोक और परलोक सँवरता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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