मन प्रसन्न है, उत्साहित है, उदास है, निराश है, दुखी है, बेचैन है, मन लग नहीं रहा, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा आदि सब मन की विभिन्न स्थितियाँ हैं। ये सब समयानुसार बदलती रहती हैं। जैसी मनुष्य की अवस्था होती है, वैसी ही उसके मन की स्थिति होती है। इन स्थितियों का सामना धनवान, निर्धन, राजनेता, अभिनेता, व्यापारी, उच्चपदासीन, साधारण मनुष्य आदि सभी को करना पड़ता है। इसके लिए कारण कोई भी हो सकता है। मानव का यह मन बहुत ही चञ्चल है। वह उसे पल भर भी चैन से नहीं बैठने देता।
मन अलादीन के चिराग से निकले हुए जिन्न की तरह होता है। उसे हर समय कुछ-न-कुछ काम चाहिए। वह खाली बैठेगा तो निश्चित ही उठा-पटक करने लगता है। यदि उसे किसी सकारात्मक कार्य में नियोजित किया जाए तो सोने पर सुहागे जैसा काम हो जाएगा। परन्तु यदि उसे नकारात्मक कार्यों में लगाया जाए तो मनुष्य का पतन अवश्यम्भावी है। उसे निठ्ठला बिठाकर रखना कभी खतरे से खाली नहीं हो सकता। हर समय उसे व्यस्त रखना बहुत आवश्यक होता है। अन्यथा वह सिर पर सवार हो जाता है और मनमाने तरीके से मनुष्य को नचाता रहता है। इस कार्य में तो उसे मानो महारत हासिल है।
चन्द्रमा उसी जल में प्रतिबिम्बित होता है जो जल शान्त है, स्थिर है। यही समस्या मानव मन की भी होती है। समुद्र की लहरों की भाँति विचारों की गहराई मन को निरन्तर स्थिर रखती है। ज्वार भाटा के लहरों के उद्वेग की भाँति मन में भी उथल-पुथल मची रहती है। यह मन कभी शान्त नहीं रह पाता। कभी किसी भी कारण से और कभी बिना वजह वह अशान्त हो जाता है। इसलिए शान्ति वहाँ अधिक समय तक नहीं बनी रह पाती।
कुछ भी सोचने और समझने के लिए मन का मौन रहना नितान्त आवश्यक है। किसी भी विषय पर विवेकपूर्ण निर्णय लेने के लिए मन की भूमिका विशेष होती है। विचार शून्यता की स्थिति बहुत ही कठिन होती है। किसी भी साधक के लिए यह उच्चावस्था होती है जो बहुत कठिनता से प्राप्त होती है। साधारण मनुष्य के लिए तो यह असम्भव है। वह इस मन को चाहकर भी साध नहीं सकता। उसके लिए तो यह दूर की कौड़ी है या अंगूर खट्टे वाली स्थिति है।
यह मानव मन है कि मानो मौन रहना जानता ही नहीं। वह तो निरन्तर कुछ-न-कुछ उधेड़-बुन या जोड़-तोड़ में लगा रहता है। इस मन पर कभी सुविचारों का तो कभी कुविचारों का आक्रमण चलता रहता है। यही वह त्रासदी है जिसके कारण व्यक्ति कभी भी शब्दों के जाल से मुक्त नहीं हो पाता। सही अथवा गलत का निर्णय करने में वह चूक जाता है। जीवन की यथार्थता और सार्थकता का बोध वह नहीं कर पाता। वे हैं जो सदा उसकी प्रतीक्षा में पलक-पाँवड़े बिछाए रहते हैं और यह मन उनसे दूर भागता रहता है।
मन की चञ्चलता मनुष्य के विवेक का हरण कर लेती है। जरा-सी बात हुई नहीं कि यह पिष्टपेषण करने लगता है। इसलिए मनुष्य को अनावश्यक ही क्रोध आने लगता है। यह स्थिति उसे अपनों से दूर करने का कार्य करती है। उस समय क्रोध के आवेग में वह गलत कदम उठा लेता है पर बाद में वही कदम उसकी शर्मिंदगी व पश्चाताप का कारण बन जाता है। पहले ही यदि मन की न सुनकर मनुष्य एक बार पुनः विचार कर ले तो इस प्रकार की दुखदायी परिस्थितियों से वह बच सकता है। उसे अपनों को खोने या अलग होने का दंश नहीं झेलना पड़ता।
मन की उतनी ही सुननी चाहिए, जहाँ तक मनुष्य को हानि न उठानी पड़े। उसे अपने मन में आए हुए कुविचारों को झटककर उनके स्थान पर सुविचारों को ही प्रश्रय देना चाहिए। इससे उसे अपरिहार्य स्थितियों से बचने में सदा सहायता मिलेगी। अपने मन को बलपूर्वक साधकर ही मनुष्य का मन शान्त और प्रसन्न रह सकता है। धीरे-धीरे विपरीत स्थितियाँ उसके अनुकूल होने लगती हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp