इस संसार में कौन अपना है और कौन पराया है? इसका सहज अनुमान लगाया जा सकना बहुत ही कठिन है। इस सत्य को रिश्ते नहीं तय करते बल्कि समय और परिस्थितियाँ तय करती हैं। मोटामोटी समझें तो अपना वही है जो हमारे विषय में सोचे, हमारी चिन्ता करे। हमारे दुख में दुखी हो और सुख में सुखी हो। जिसके पास न रहते हुए भी उसकी मौजूदगी का हर पल अहसास हो। उसका व्यवहार, उसका मन से जुड़ाव ही उसे करीबी बना देता है। इस दुनिया में करोड़ों लोग बसते हैं पर हर कोई अपना नहीं बन जाता। किसी का अपना बनने या बनाने के लिए उस व्यक्ति विशेष को उसकी अच्छाइयों एवं कमियों के साथ ही पूर्णरूपेण अपनाना पड़ता है।
हितचिन्तक ऐसा हो सकता है जिससे हमारा रक्त का सम्बन्ध न भी हो। पराया होकर भी वह अपना अभिन्न बन जाता है। इसका कारण है कि उसके साथ सम्बन्ध स्वार्थ न होकर मन से जुड़ाव होना होता है। दोनों का निश्छल प्रेम ही उन्हें परस्पर मिलाता है। इन दोनों की मित्रता प्राण जाए पर वचन न जाए वाली होती है। ये एक-दूसरे की कमियों को आत्मसात कर लेते हैं, किसी के समक्ष अपने प्रिय की कमियों को प्रकट नहीं करते। इसलिए उन्हें दूसरों के सामने उपहास का पात्र बनने का अवसर नहीं देते। ये सम्बन्ध विश्वास को डोर से बंधे होते हैं।
इसके विपरीत अहित करने वाला व्यक्ति अपना होकर भी पराया बन जाता है। वह दूसरे की आँख की किरकिरी बन जाता है। उसके साथ रक्त का सम्बन्ध ही क्यों न हो, उसे सहन करना कठिन हो जाता है। अहित करने वाला कितना ही प्रिय हो अथवा बहुत ही करीबी हो, उसे मनुष्य अपना शत्रु समझता है। अपने ही यदि शत्रुता करने लगें तो फिर शत्रुओं की क्या आवश्यकता रह जाती है? जो अपना होता है, वह कभी अहित करने वाला नहीं हो सकता।
अब देखिए कि रोग बेशक हमारे शरीर का ही अंश होता है, इस शरीर में ही पैदा होता है। उसके आने का कोई भी कारण हो सकता है। उसका अतिथि या अपने बन्धु की तरह सत्कार नहीं किया जाता। अपना होकर भी वह शरीर को हानि पहुँचाता है। मनुष्य को कष्ट देता है, परेशान करता हैं। इसलिए उसे कोई भी नहीं चाहता। सभी लोग उससे नफरत करते हैं, उसे अपना शत्रु मानते हैं। इस स्थिति में उस समय उपचार करवाना पड़ता है, समय और पैसा खर्च करना पड़ता है।
इसके विपरीत औषधि जंगल में पैदा होती है और उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसे अनेक प्रकार की दवाइयाँ बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। परायी होकर भी वह हमारा हित करती है। हमें उन बिमारियों से बचाती है। इससे हमारा स्वास्थ्य लाभ हो पाता है। इसलिए लोग उससे घृणा नहीं करते। उसे खरीदकर लाते हैं, उसे सम्हालकर रखते हैं। फिर उसे खाकर स्वयं को स्वस्थ बनाते हैं। यह कहलाता है अपनापन, जो बिना किसी स्वार्थ के हमारा हित साधती है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य को वही अपना लगता है जो उसका सच्चा हितैषी होता है। ऐसा साथी जो बिना कहे ही अपने प्रियजन की समस्या को समझ जाए और उसे सान्त्वना दे। उसके सिर पर अपना वरद हस्त रखकर कहे- "मैं हूँ न तुम्हारे साथ। घबराओ मत सब अच्छा होगा।"
इतना आश्वासन यदि किसी मनुष्य को मिल जाए तो उसे हर परिस्थिति में जूझने की शक्ति मिल जाती है। ऐसे हितचिन्तक मनुष्य अपने जीवन में मिल जाएँ तो उन्हें किसी भी मूल्य पर खोना नहीं चाहिए। मानपूर्वक उनका साथ पाने का प्रयास करते रहना चाहिए। यदि कभी कहीं दोनों में कोई गलतफहमी हो जाए तो आमने-सामने बैठकर उसे सुलझा लेना ही बुद्धिमत्ता कहलाती है। यदि कभी झुकना भी पड़ जाए तो अपने हितचिन्तक को मना लेना चाहिए, उससे किनारा करने के विषय में कभी सोचना भी नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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