अपनी बुद्धि को महान और दूसरों की बुद्धि को कम करके आँकने से बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। दूसरे हमसे अधिक बुद्धिमान हो सकते हैं, इस सत्य पर सदा विश्वास करना चाहिए। संसार में वही मनुष्य सफल होता है जो मनीषियों की बात को ध्यान से पढ़े, सुने और समय आने पर उस पर आचरण करे। व्यर्थ टीका-टिप्पणी करके स्वयं को अज्ञ साबित नहीं करना चाहिए। इससे विद्वानों के समक्ष अपनी हेठी होती है।
स्वयं को सर्वश्रेष्ठ विद्वान मानना ठीक नहीं है। दुनिया में विविध विषयों पर इतना सारा ज्ञान भरा हुआ है जिसे आयुपर्यन्त ग्रहण करते रहें, तब भी नहीं कह सकते कि सब कुछ जान लिया है। न जाने कितने जन्म लग जाएँगे, फिर भी मनुष्य पूर्णज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए अपने ज्ञान का मिथ्या दम्भ नहीं भरना चाहिए। संसार में रहते हुए जितना ज्ञान मनुष्य चाहे प्राप्त कर ले पर उसकी शर्त है विनम्रता का पाठ भी पढ़ना।
कुछ दिन पूर्व वट्सअप पर एक बहुत लम्बी-सी कथा सार संक्षेप के साथ पढ़ी थी। उसके कुछ अंश को भाषा शुद्ध करके यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।
बन्दरों का एक समूह फलों के बगीचे से फल तोड़कर खाया करता था। वे माली की मार और डण्डे भी खाते थे यानी रोज पिटते थे।
एक दिन बन्दरों के कर्मठ और जुझारू सरदार ने सब बन्दरों से विचार-विमर्श करके निश्चय किया कि रोज माली के डण्डे खाने से बेहतर है कि हम अपना फलों का बगीचा लगा लें। इससे बहुत सारे मनचाहे फल खाने से उन्हें किसी तरह की रोकटोक भी नहीं होगी और किसी को माली की मार भी नहीं खानी पड़ेगी।
सभी बन्दरों को यह प्रस्ताव बहुत पसन्द आया। जोर-शोर से गड्ढे खोदकर उन्होंने फलों के बीज बो दिए। पूरी रात बन्दरों ने बेसब्री से फलों का इन्तजार किया। सुबह देखा तो फलों के पौधे भी नहीं आए थे। यह देखकर बन्दर भड़क गए और सरदार से गाली-गलौच करने लगे, "कहाँ हैं हमारे हिस्से के फल?"
सरदार ने बन्दरों की मूर्खता पर अपना सिर पीट लिया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बोला, "साथियों, अभी हमने सिर्फ बीज बोए हैं, फल आने में थोड़ा समय लगता है, इसलिए थोड़ी प्रतीक्षा करो।"
इस बात को सुनकर तो बन्दर मान गए। दो-चार दिन उन्होंने और प्रतीक्षा की परन्तु फिर भी पौधे नहीं आए। अब मूर्ख बन्दरों के सब्र का बाँध टूट गया। उन्होंने जैसे ही मिट्टी हटाई तो देखा कि फलों के बीज तो जमीन में वैसे-के-वैसे पड़े हैं।
बन्दरों को लगा कि सरदार झूठ बोल रहा है। उनकी किस्मत में तो माली के डण्डे खाने ही लिखे हैं। उस समझदार बन्दर के मना करने पर भी बन्दरों ने सभी गड्ढे खोदकर फलों के बीज निकाल-निकालकर फैंक दिए। पुन: अपने भोजन के लिये माली की मार और डण्डे खाने के लिए चल पड़े।
इस कहानी को पढ़ने के उपरान्त विचार यह करना है कि कहीं हम सभी बन्दरों की तरह मूर्खतापूर्ण व्यवहार तो नहीं कर रहे? यानी कोई बेवकूफी तो नहीं कर रहे। ऐसे व्यवहार से बचना चाहिए जो हमारे विनाश का कारण बन जाए या फिर मुसीब बन जाए। हमारे बीच जो भी विद्वान मनीषी हैं, उनकी दी गई शिक्षा का अनादर करने के स्थान उसे मान लेने में ही भला होता है। ऐसा करके हम उन पर कोई अहसान नहीं करते।
दूसरों से हम बहुत अधिक अपेक्षाएँ रखते हैं परन्तु यह कभी नही सोचते कि हम स्वयं दूसरों के लिए कुछ कर भी रहे हैं या नहीं। सारी समस्याओं की जड़ है हमारा व्यर्थ का अहंकार कि मेरे बराबर कोई और बुद्धिमान हो ही नहीं सकता। जब तक इस भ्रम से बाहर नहीं निकलेंगे तब तक कुछ सीख नहीं सकेंगे। जहाँ तक हो सके विनम्र रहकर शिक्षा लेनी चाहिए, उसी में ही जीवन की सार्थकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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