धर्मपूर्वक आचरण करना हर मनुष्य का नैतिक दायित्व है। कुछ अधिक पाने के लालच में इन्सान अपना बहुत कुछ दाँव पर लगा बैठता है। लोभ सभी बुराइयों की जड़ है। लालच रूपी इस दानव से सदा बचकर रहना चाहिए। सज्जन व्यक्तियों को सम्मान देना चाहिए। सदा धर्म के अनुसार कार्य करने चाहिए और भगवान पर पूरा विश्वास रखना चाहिए। तभी मनुष्य इस लोभ रूपी दानव के चँगुल से बच सकता है, अन्यथा ईश्वर ही मालिक है।
आज एक दृष्टान्त देखते हैं, जिसमें बताया गया है कि लालचवश किया गया गलत कार्य कभी सही नहीं कहा जा सकता। हमारी पुनीत भरतीय संस्कृति में यज्ञों का बहुत महत्व दर्शाया गया है। इन्हें सम्पन्न करने के लिए एक विशेष प्रकार की यज्ञवेदी का निर्माण किया जाता है। अपने लालच के कारण इस पवित्र यज्ञवेदी पर थूकना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। इस घोर अपराध का दुष्परिणाम एक गाँव के लोगों को इस प्रकार भोगना पड़ा कि उन्हें किस अपराध की सजा मिल रही है, यह सोचने तक का अवसर ही नहीं मिल सका।
कहते हैं एक स्त्री के मुँह में सुपारी थी। उसने सफाई करते समय गलती से यज्ञवेदी में थूक दिया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उतना ही थूक स्वर्ण में बदल गया है। अगले दिन फिर उसने थूककर देखा तो वह भी सोने में बदल गया। इस तरह उसके पास धीरे-धीरे बहुत-सा सोना हो गया।
अन्य महिलाओं में भी यह बात जंगल में आग की तरह तेजी से फैली। फिर कई अन्य महिलाएँ भी अपने-अपने घर में बनी यज्ञवेदी में थूक-थूककर सोना बनाने लगीं। वहाँ एक महिला ऐसी थी जो यह घृणित कार्य नहीं करती थी, अन्य महिलाओं ने उसे बहुत उकसाया, समझाया कि वह भी वैसा ही करे। उसने कहा कि वह अपने पति की अनुमति के बिना यह कार्य हरगिज नहीं करेगी। उसने एक रात डरते-डरते अपने पति से पूछ ही लिया। उसने कहा, “खबरदार जो ऐसा किया तो। पवित्र यज्ञवेदी क्या थूकने की चीज है?”
पति की चेतावनी के आगे बेबस वह चुप हो गई। वह बहुत व्यथित रहने लगी। उसके सूने गले को लक्ष्य कर अन्य स्त्रियाँ अपने नए-नए कण्ठ-हार दिखातीं तो वह मन-ही-मन में घुलने लगी। उसे लगता कि उसका दुर्भाग्य है अथवा कोई पूर्वजन्म का पाप कि उसे एक रत्ती सोने के लिए भी तरसना पड़ता है। उसे अपने पति का यह निर्णय गलत लगता था। वह सोचती कि इस धर्माचरण ने उसे दिया ही क्या है? जिस नियम के पालन से दिल को कष्ट होता है, वह उसका पालन क्यों करे?
वह बीमार रहने लगी। उसका पति इस रोग को ताड़ गया। उसने एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में सपरिवार ग्राम त्यागने का निश्चय किया। गाड़ी में सारा सामान लादकर वे सब उस गाँव से रवाना हो गए। सूर्योदय से पहले ही वे बहुत दूर निकल जाना चाहते थे।
किन्तु, अरे यह क्या? ज्यों ही वे गाँव की सीमा से बाहर निकले पीछे एक भयानक विस्फोट हुआ। पूरा गाँव धू-धू करके जल उठा था। सज्जन दम्पती अवाक रह गए। उस स्त्री को अपने पति का महत्त्व समझ में आ गया। वास्तव में इतने दिन गाँव बचा रहा था तो केवल इस कारण कि उसका परिवार गाँव की सीमा में था।
विचारणीय यह है कि गाँव की स्त्रियों का सारा सोना धरा-का-धरा रह गया। लोभवश किया गया घृणित कार्य उनकी मौत का कारण बन गया। इसीलिए मनीषी समझाते हैं कि लोभ रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, अन्यथा इसके वार से बच पाना असम्भव होता है। जहाँ तक हो सके अपनी ईमानदारी की कमाई पर सन्तोष करना चाहिए। दूसरों की होड़ में अनाप-शनाप कार्य नहीं करने चाहिए। आज मनुष्य को एक लालच घेरता है तो कल दूसरा। उनके पीछे-पीछे भागते रहना इसका हल नहीं है। इस लालच रूपी दानव से जितना बचकर निकल जाए उतना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है।
चन्द्र प्रभा सूद
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