थोथे चने की तरह वही मनुष्य अधिक बोलता है जो अपूर्ण या अज्ञानी होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो वास्तव में विद्वान होता है, उसे यह ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता कदापि नहीं होती कि वह विद्वान है। उसकी विद्वत्ता की सुगन्ध फूलों की तरह स्वयमेव चारों ओर फैल जाती है। तभी सर्वत्र उसका सम्मान होता है। जो व्यक्ति अधूरा ज्ञान रखता है, वह बढ़-बढ़कर बोलता है। एक कहावत है-
अधजल घघरी छलकत जाए।
अर्थात जो मटका जल से आधा भर होता है, वह अधिक छलकता है, यानी वही ज्यादा शोर करता है।
और भी एक उक्ति है, इसे देखिए-
जो गरजते हैं वे बरसते नहीं।
अर्थात जो बादल अधिक शोर करते हैं, वे बरसते नहीं हैं। जो बादल बरसने वाले होते हैं वे शोर नहीं करते, वे बस बरसकर, धरती की प्यास बुझाकर चुपचाप वापिस चले जाते हैं।
किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में इस कथन पर अपनी स्वीकृति दर्शाते हुए यह चित्रण किया है-
संपूर्णकुंभो न करोति शब्दं
अर्धोघटो घोषमुपैति नूनम्।
विद्वान्कुलीनो न करोति गर्वं
जल्पन्ति मूढास्तु गुणैर्विहीनाः॥
अर्थात जिस प्रकार आधा भरा हुआ मटका अधिक आवाज करता है पर पूरा भरा हुआ घड़ा जरा भी आवाज नहीं करता। उसी प्रकार विद्वान अपनी विद्वत्ता पर घमण्ड नहीं करते। इनके विपरीत गुणहीन लोग स्वयं को गुणी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।
इस श्लोक का मन्तव्य यही है कि विद्वान अपने आचार-व्यवहार से, बोलचाल के तरीके से अपनी छाप सबके हृदयों पर छोड़ जाता है। विद्वत्ता की सबसे पहली शर्त होती है विनम्रता। जिसका समर्थन यह कहकर किया जाता है-
विद्या ददाति विनयम्।
अर्थात विद्या विनम्रता देती है। विद्वान वही है जिसे अपनी विद्या का अहंकार न हो। विद्या का मद उसे ले डूबता है। यदि वह घमण्डी होगा तो उसे समाज में वह स्थान नहीं प्राप्त हो सकता जिसका वह अधिकारी है। अहंकारी विद्वान के पास कोई भी मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए नहीं जाना चाहता। यदि कोई व्यक्ति उसके पास जाएगा भी तो किसी विवशता के कारण ही जाएगा।
विद्वत्ता का ढोंग करने वाला बहुत समय तक अपनी दुकान नहीं चल सकता। विद्वत्ता का ढोंग करने वाला केवल अपनी तारीफों के पुल बाँधता है। रंगे सियार की तरह उसकी पोल शीघ्र ही खुल जाती है। जैसे आजकल टी. वी., समाचारपत्रों में अल्पज्ञानी या तथाकथित विद्वान सुर्खियों में छाए रहते हैं। सर्वत्र उनकी आलोचना होती रहती है। ऐसे अल्पज्ञों का अन्त बुरा होता है। उस समय अपना मुँह छिपाने के लिए उन्हें कहीं भी स्थान नहीं मिलता। फिर वे सबकी आँख की किरकिरी बन जाते हैं।
वास्तव में जो विद्वान होते हैं वे अपनी प्रशंसा से बचते हैं। इसलिए वे आगे आना नहीं चाहते। वे चाहे कितने ही पर्दों में छिपकर बैठ जाएँ, उनकी सुगन्ध को सूँघते हुए पारखी उन्हें खोज ही लेते हैं और उनके ज्ञान का सदुपयोग कर लेते हैं। विद्वानों की यह विशेषता होती है कि उनकी ज्ञान पिपासा कभी शान्त नहीं होती। वे निरन्तर अध्ययनरत रहते हैं, मूर्खों की भाँति अपने समय को व्यर्थ नहीं गँवाते।
विद्वान हीरे की तरह बहुमूल्य रत्न होते हैं। पारखी ही उनका मूल्य जान सकता है। ऐसे विद्वानों को खोजकर, यत्नपूर्वक उनसे ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। अल्प ज्ञानियों के जाल में फँसने से परहेज करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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