आलोचना करना एक कला होती हैं जिससे सामने वाले को बात भी समझ आ जाए और वह हताश न होकर अपने कार्य को सुधारने का प्रयास करे। आलोचक यदि अपने धर्म का ईमानदारी से निर्वहण करता है, तभी वह सच्चे अर्थों में आलोचना करने का पात्र बनता है। वह यदि अपने मित्रों की केवल प्रशंसा ही करेगा और अन्यों को हतोत्साहित करेगा तो इसका अर्थ यही होता है कि वह अपने आलोचकधर्म का पालन नहीं कर रहा अपितु उसके साथ गद्दारी कर रहा है।
इन्सानी कमजोरी है कि रचनाकार भी अपनी प्रशंसा से प्रसन्न होता है और आलोचना से निराश, हताश हो जाता है। समझदार आलोचक की पक्षपातपूर्ण व्यवहार की भावना कदापि नहीं होनी चाहिए। किसी भी साहित्यिक रचना को अच्छी तरह से निकष पर कसकर ही उसका परीक्षण करना वास्तव में आलोचक का धर्म है।
साहित्यकार अपने जीवन और अनभुव से साहित्य की रचना करता है और आलोचक उनका विश्लेषण करता है। सफल आलोचक को सदा व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से परे रहकर आलोचनाकर्म करना चाहिए। तभी सही मायने में वह साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जब निन्दा आलोचना का स्थान ले लेती है, तब आलोचना निष्पक्ष नहीं रहती। किसी आलोचक की टिप्पणी को सदा सकारात्मक रूप से रचनाकार को लेना चाहिए। उसे सुनकर या पढ़कर व्यर्थ ही व्यथित होने के स्थान पर और और अभ्यास करके, कुन्दन की तरह अधिक तपकर या निखरकर सबके सामने अपनी कृति को लाना चाहिए।
बुद्धिमान आलोचक पथप्रदर्शक होता है। आलोचनाकर्म दोधारी तलवार के समान होता है। अच्छा कहा तो वाहवाही और कमियों को इंगित किया तो बहुत बुरा। आलोचक को एक कुम्हार की भाँति सृजनकर्ता की कमियों को दूर करके उसे सफलता के नए आयाम तक ले जाना चाहिए। आलोचक को पूर्वाग्रह का त्याग करकर निष्पक्ष और सकारात्मक आलोचना करनी चाहिए। उसका कार्य तीर चलाकर रचनाकार को लहूलुहान करना नहीं होता, अपितु रचना की सतह तक अपनी पैठ बनाकर उसे ‘मील का पत्थर’ बनाने में सहयोग करना होता है।
'निंदक नियरे राखिए' वाली सोच शायद कहीं पीछे छूट गई लगती है। यदि दोनों ही अपने दायित्व को समझ लें तो आलोचना स्वयं में सुधार लाने का एक बहुत ही सकारात्मक माध्यम बन सकती है। अगर कोई कमियों को उजागर करता है तो भविष्य में यह रचनाकार के लिए ही हितकर होता है। यह सत्य है कि सुधार की सम्भावनाओं के लिए सोच का द्वार हमेशा खुला रखना चाहिए। तभी प्रतिभा को निखार पाना सम्भव हो सकता है।
आलोचनाकर्म साहित्य के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना साहित्य की रचना करना। निर्भीकता, पक्षपात विहीनता और अधिकाधिक अध्ययन की प्रवृत्ति रूपी हथियारों से एक आलोचक को सदा लैस होना चाहिए। किसी कृति को समग्र रूप से देखकर और परखकर आलोचना करने से उस रचना के साथ पूरा न्याय किया जा सकता है। अन्यथा आलोचना या तो प्रशस्ति पत्र बनकर रह जाती है या फिर लेखक की टाँग खिंचाई करके उसे हतोत्साहित करने का षडयन्त्र मात्र बन जाती है। अपने मन की भड़ास निकालने का हक न तो आलोचक को कभी दिया जा सकता है और न उसे कभी सहन किया सकता है। यह बात प्रतिक्रिया देते समय आलोचक को हमेशा अपने ध्यान में रखनी चाहिए।
आलोचना और समीक्षा दोनों अलग-अलग विषय हैं। समीक्षा के अंतर्गत समीक्षक की दृष्टि रचना के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों पर होती है। उस समय आलोचक केवल रचना के कमजोर पहलुओं पर ही चर्चा करता है। आलोचना या समीक्षा यदि रचना को नजर में रखकर की जाए तो उसका परिणाम अधिक सार्थक होता हैं।
पूर्वाग्रह से ग्रसित कुछ आलोचक लेखन से ज्यादा व्यक्ति की समीक्षा करते है। ऐसे में वे लेखक की कृति के साथ अन्याय कर बैठते हैं। एक आलोचक का उत्तरदायित्व बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। उसे उसका निर्वहण पूरी ईमानदारी और निष्ठा से करना चाहिए। पूर्वाग्रह के कारण किसी को नीचा दिखाने के लिए षडयन्त्र करना निन्दनीय है। आलोचना तर्कपूर्ण होनी चाहिए।
कभी-कभी समीक्षक के कसे हुए भाषासौष्ठव के कारण समीक्षा पाठकों को कृति से कहीं अधिक प्रभावित करती है। एक अच्छी और प्रभावशाली समीक्षा, किसी भी पुस्तक की बिक्री पर अपना सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकती है। इसलिए सावधानी बरतना बहुत आवश्यक होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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