आज महिलाएँ करवाचौथ का व्रत रख रही हैं। इसे भी त्योहा की तरह मनाया जाता है। यह व्रत स्त्रियाँ अपने पति की लम्बी आयु के लिए रखती हैं। इस दिन प्रातः सरगी खाने के पश्चात सारा दिन भूखे और प्यासे रहना होता है। शाम के समय सोलह श्रृंगार करके और सुन्दर से नए वस्त्र पहन कर महिलाएँ ग्रुप में पूजा करती हैं। फिर रात को चन्द्रमा को अर्घ्य देने के पश्चात उनका व्रत पूर्ण होता है और तभी उन्हें खाना खाना होता है।
कुछ दिन पश्चात अहोई अष्टमी का व्रत भी आने वाला है। इस व्रत को पुत्र की दीर्घायु के लिए माता रखती है। इस व्रत में भी दिनभर कुछ भी खाना और पीना नहीं होता। दिन ढले शाम को पूजा करके व्रत को पूर्ण करने होता है।
हमारे आदी ग्रंथ वेदों में इन व्रतों का कोई उल्लेख नहीं है। पता नहीं किस समय और किन तथाकथित विद्वानों ने इन व्रतों का विधान किया। सबसे मजे की बात यह है कि उसके साथ ही लोगों के मन में यह भय भी पैदा कर दिया कि करवाचौथ का व्रत न रखने से पति की आयु लम्बी नहीं होती। इसी ही तरह अहोई अष्टमी का व्रत न रखने से पुत्र की आयु लम्बी नहीं होती।
यदि मनन किया जाए अथवा अपने आसपास नजर दौड़ाई जाए तो इन व्रतों की सच्चाई का पता चल जाएगा। व्रत रखने वाली स्त्रियों के पति की मृत्यु उनसे पहले भी हो जाती है। इसी प्रकार व्रत रखने वाली महिलाओं के पुत्र की मृत्यु भी उनके सामने ही उनके जीवनकाल में ही हो जाती है। इसलिए यह तथ्य गलत है कि व्रत रखने से किसी की आयु बढ़ती है और न ही व्रत न रखने से किसी की आयु काम होती है।
मनुष्य का बच्चे के रूप में जन्म होता है। उसके जन्म से पूर्व ही उसकी आयु का निर्धारण हो जाता है। मनुष्य को आयु उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही उसे मिलती है। इसलिए मनुष्य की आयु को न कोई कम कर सकता है और न ही कोई बढ़ा सकता है। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि ईश्वर के न्याय में हम दखल नहीं दे सकते।
मैं इन व्रतों का विरोध नहीं कर रही और न ही किसी की भावना को ठेस पहुँचा रही हूँ। इस विषय में मेरा मात्र इतना ही कहना है कि गर्भवती महिलाओं, रोगी स्त्रियों को जबरदस्ती इन व्रतों को नहीं रखना चाहिए। न ही उन्हें समाज की परवाह करनी चाहिए। बीमारी की अवस्था में व्रत रखकर दवा न खाने से बीमारी बढ़ जाती है तो ऐसे व्रत की क्या उपयोगिता? ईश्वर यह कभी नहीं कहता कि अपने शरीर को कष्ट देकर व्रत आदि रखो। यदि फिर भी व्रत रखना हो तो बीच में फल खा लेने चाहिए, चाय या काफी पी लेनी चाहिए।
यह व्रत भी आजकल प्रदर्शन का विषय बन गया है। महिलाएँ ब्यूटी पार्लर में जाकर सजधजकर, खूब सारे आभूषण पहनकर पूजा में जाति हैं। वहाँ भी यही देखा जाता है कि कौन महिला अधिक सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनकर आई है। जिन पतियों की हैसियत नहीं होती, उनके घरों में इन उत्सवों पर कलह-क्लेश होता है। बताइए लड़ाई-झगड़ा करके या गली-गलौच करके व्रत रखने का औचित्य मेरी समझ से परे है।
कुछ पति-पत्नी सारा साल झगड़ते रहते हैं और एक-दूसरे के अमंगल की कामना करते हुए गाली-गलौच करते रहते हैं तो ऐसी उन महिलाओं के व्रत रखने का भी कोई लाभ नहीं होता। व्रत रखकर यदि फ़िल्म देखने जाए या दिनभर दूसरों की निन्दा-चुगली की जाए तो व्रत रखना बेकार हो जाता है।
मेरे विचार में पति-पत्नी में परस्पर प्रेम, सौहार्द और विश्वास होना चाहिए। एक-दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण होना चाहिए। यदि दोनों में ऐसा हो तो वर्हाँ किसी व्रत की आवश्यकता नहीं होती। घर में सुख-शान्ति हो तो उस घर में स्वाभाविक रूप स्वर्गं जैसी सुख और समृद्धि का निवास होता है। तब फिर व्रत रखना या न रखना कोई मायने नहीं रखता।
अन्त में यह सत्य प्रस्तुत करना चाहती हूँ कि विश्व में कुछ मुट्ठी भर लोग ही यह व्रत रखते हैं। वे लोग जिनके लिए कोई व्रत नहीं रखता, वे सभी मर नहीं जाते और जिनके लिए व्रत रखा जाता है, वे सभी दीर्घायु नहीं होते। इसलिए अपने स्वस्थ्य और परिस्थितियों को देखते हुए ही इन व्रतों को रखना चाहिए। भेड़चाल या किसी के जोर देने पर इन व्रतों को नहीं रखना चाहिए। व्रत रखकर ईश्वर की उपासना सच्चे मन से करनी चाहिए और अपने साथी या पुत्र की मंगल कामना करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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