सृष्टि का एक अटल नियम है कि मनुष्य दूसरों को जो कुछ देता है वह अनेक गुना होकर उसे वापिस मिलती है। चाहे वह सुख-शान्ति, दया-करुणा हो अथवा रिश्तों में सामञ्जस्य रखना हो या फिर दु:ख-अशान्ति, क्रूरता-पीड़ा हो। इसी प्रकार अन्न, वस्त्र और धन जो दूसरों में वितरित करते हैं, उनके खजाने कभी खाली नहीं होते। जो लोग परहित का ध्यान रखते हैं, उन्हें ही समाज अपने सिर-आँखों पर बिठाता है, अन्यों को नहीं। महापुरुषों का दायित्व समाज को दिशा देने होता है। वे अपने दायित्व का निर्वहण करते हैं तो जान साधारण के हृदयों में पनप रहे मनोमालिन्य को दूर करके उन्हें उचित परामर्श देते हैं।
यहाँ एक दृष्टान्त की सहायता लेते हैं, जिसे वट्सअप पर पढ़ा था। दो भाई परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़ा भाई कोई वस्तु लाता तो छोटे भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाता, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।
इन्सानी स्वभाव है, एक दिन किसी बात पर दोनों में कहासुनी हो गई। बात इतनी बढ़ गई कि छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था? दोनों भाइयों के बीच दरार पड़ गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। समय बीतने लगा। मार्ग में आमने-सामने पड़ जाने पर कतराकर दृष्टि बचा जाते। छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ भाई को जाकर मना लाना चाहिए।
वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला- "अब चलिए, विवाह कार्य संभालिए।"
बड़ा भाई न पसीजा, उसने चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिन्ता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लाए। इधर विवाह भी निकट आ गय्या था। सम्बन्धी भी आने लगे थे।
एक सम्बन्धी ने बताया-"तुम्हारा बडा भाई एक सन्त के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है।"
छोटा भाई उन सन्त के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की- ''आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यँहा आने के लिए तैयार कर दे।''
दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया। सन्त ने पूछा- "तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है न? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?"
बड़ा भाई बोला- "मैं विवाह में सम्मिलित ही नहीं हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।''
सन्त जी ने कहा- "जब सत्संग के पश्चात मुझसे मिल कर जाना।''
सत्संग समाप्त होने पर वह सन्त जी के पास पहुँचा। सन्त जी ने पूछा- "मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?"
बडा भाई मौन रहा। उसने कहा- "क्षमा चाहता हूँ, कुछ याद नहीं पडता़ कौन-सा विषय था?"
सन्त ने कहा- "अच्छी तरह याद करके बताओ।"
प्रयत्न करने पर भी उसे कुछ याद न आया। सन्त बोले- "देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के वर्षों पहले कहे गए कड़वे शब्द अभी तक तुम्हारे हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें अपने जीवन में कैसे उतारोगे? जीवन नहीं सुधारा तब सत्संग में आने का लाभ ही क्या है? अतः कल से यहाँ मत आया करो।''
अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिन्तन किया। उसे लगा कि वास्तव में गलती उसी की थी। उसने सन्त के चरणों में सिर नवाते हुए कहा- "मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गन्तव्य पा लिया है।''
इस कथा का सार यही है कि जितना दूसरों को क्षमा करने की प्रवृत्ति मनुष्य रखेगा उतना ही अपने रिश्तों को बचाकर रख सकेगा। जितना प्यार बाँटेगा उतना ही भाईचारा बढ़ेगा। नफरत की खेती बोने पर फल के रूप में नफरत ही मिलती है। जहाँ तक हो सके जीवन का शुभारम्भ कभी भी कर सकते हैं कटु स्मृतियों की विस्मृति के साथ। कटु व्यवहार मित्रों की संख्या कम करके शत्रुओं की वृद्धि करता है। प्रतिदिन आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए। यथासम्भव अपनों को पराया बनाने के स्थान पर परायों को अपना बनाने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp