स्त्री को लाचार या बेबस समझना पुरुष की बहुत बड़ी भूल कही जा सकती है। कहीं कुछ अपवाद हो सकते हैं पर पुरुष असहाय या बेचारा कभी नहीं होता। स्त्री के होने से ही पुरुष का वजूद है, वर्चस्व है। उसके बिना वह किसी तरह से पूर्ण नहीं कहा जा सकता, वह अधूरा ही रहता है। नारी का प्रेम व समर्पण जब उसे प्राप्त होता है तभी वह पूर्ण होता है। नारी के बिना उसकी पूर्णता नहीं होती और वह उसी पर हावी होने का प्रयास करता है। कुछ पुरुष तो पत्नी को अपना साथी न मानकर पैर की जूती समझते हैं।
स्त्री में गजब की सहनशीलता होती है। पुरुष भूल जाते हैं कि स्त्री यदि सहन करती है या वह झुक जाती है तभी पुरुष के अहंकार का आकाश ऊँचा उठ पाता है और तभी वे अपने पुरुषत्व पर गर्व कर सकते हैं। यदि स्त्री उनकी भाँति दम्भी बन जाए तो उन्हें स्त्री की तरह हर हाल में झुकना पड़ेगा, सहनशील बनना पड़ेगा। स्त्री यदि पुरुष की तरह व्यवहार करने लगेगी तो पुरुष का अस्तित्व ही टूटकर बिखर जाएगा। उसका जन्मजात अहंकार परवान नहीं चढ़ सकेगा। तब उसे स्त्री के समान ही सब सहन करना पड़ेगा और झुकना पड़ेगा। जब पुरुष द्वारा किए गए दुर्व्यवहार पर वह कलपती है, रोती है, बिखरती है, सिसकती है तो विकृत प्रवृत्ति वाले पुरुष उस पर खुलकर अट्टहास करते हैं। हर स्थान पर उसका उपहास करने से बाज नहीं आते।
एक बात कहना आवश्यक हो समझती हूँ कि स्त्री व्यवस्थित रहती है तो पुरुष अस्त-व्यस्त रहता है। सारे घर को व्यवस्थित करने में उसका अधिकांश समय व्यतीत होता है। घर से अपने काम पर जाने से पहले अधिकतर पुरुष सदस्य घर में अपनी सभी वस्तुएँ इधर-उधर बिखेरकर चले जाते हैं। यदि स्त्री भी वैसा ही करने लगे तो घर दो दिन भी नहीं चल सकेगा।उस समय घर घर न रहकर अजायबघर दिखाई देने लगेगा। ऐसे घर को कोई भी पसन्द नहीं करता। वहाँ रहने वालों का जीना भी मुहाल हो जाता है।
स्त्री मर्यादित रहती है परन्तु पुरुष सारी सीमाएँ लाँघ जाता है। उसे इस बात का भान नहीं रहता कि समाज ने स्त्री के साथ-साथ उसके लिए भी कुछ मर्यादाएँ निर्धारित की हैं। उनकी अनुपालना उसके लिए आवश्यक है। कुछ पुरुष अपने मिथ्या अहं के कारण उन वर्जनाओं को धत्ता बताकर कुमार्गगामी बन जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप वे बलात्कार जैसे जघन्य अपराध कर बैठते हैं। उनकी मानसिक विकृति स्त्री को प्रताड़ित करके प्रसन्न होती है।
स्त्री अपने स्त्रीत्व के गुण को बनाए रखती है परन्तु पुरुष अपने पुरुषत्व के गुण को विस्मृत करने के लिए सदा ही तैयार रहता है। उसकी नम्रता के कारण पुरुष का पौरुष पुष्ट होता है। वह मन से पुरुष के प्रति समर्पित रहती है इसलिए वह अपेक्षित और तिरस्कृत रहती है। यदि वह अपने स्वाभिमान को ताक पर न रखे तो पुरुष का मिथ्याभिमान आहत हो जाता है। एक स्त्री इसलिए स्वयं को झुका देती है ताकि पुरुष के अहं को पोषित कर सके। प्रायः पुरुष स्त्री के अहं को तुष्ट करने के लिए प्रयास ही नहीं करते। वे उसे बराबरी के स्थान पर दोयम दर्जा ही देना चाहते हैं। यही मुद्दा दोनों में संघर्ष का कारण बन जाता है।
पुरुष को सदा ही स्त्री को झुकाने, अपमानित करने, उसके अस्तित्व को तार-तार करने के लिए किसी विशेष अवसर की तलाश नहीं करनी पड़ती। वह जब चाहे ऐसा दुर्व्यवहार कर सकता है। घर के बाहर तिरस्कृत रने वाला पुरुष घर में शेर बन जाता है। इसलिए अपनी पत्नी पर अधिक अत्याचार करता है। स्त्री प्रायः उसे सम्हालने का प्रयास करती है। वह अपने घर को बचाए रखने के लिए अनेकानेक प्रयास करती है।
मैं नारी मुक्ति मोर्चे की पक्षधर नहीं हूँ। उससे बढ़ने वाली उच्छृंखलता, स्वछन्दता तो किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं। शायद पुरुष द्वारा की जाने वाली ज्यादतियों के विरोध में कुछ क्रान्तिकारी स्त्रियों के द्वारा उठाया गया कदम इसे मान सकते हैं। मेरा तो यह मत है कि 'मैं श्रेष्ठ' वाली सोच से ऊपर उठने का समय आ गया है। अपनी जीवन यात्रा को ठीक से चलने के लिए दोनों को अपने मिथ्या अहं को छोड़कर एक स्वस्थ समाज के निर्माण में कन्धे-से-कन्धा मिलाकर सहयोग करना चाहिए, यही समय की माँग है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp