घर की लाडली, माता-पिता द्वारा नाजों से पाली सयानी होती हुई बेटी को समयानुसार विदा होकर, सप्तपदी की रस्मों का निर्वहण करने के लिए एक दिन अपने ससुराल जाना ही होता है। पितृसत्तात्मक समाज की विशेषताओं में से एक यह भी है कि लड़की की ससुराल के लिए विदाई होती है, लड़के की नहीं। हम अपवाद की चर्चा नहीं कर रहे। हमारी भारतीय संस्कृति के नैतिक जीवन मूल्यों में गृहस्थाश्रम को बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। शेष तीनों आश्रमों यानी ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम और सन्यासाश्रम का पालन यह गृहस्थाश्रम ही करता है।
विचारणीय है कि ससुराल यानी एक घर है जहाँ एक युवती अपने सपनों और अरमानों को लेकर प्रवेश करती है। उसे वहाँ बहू कहकर सम्बोधित किया जाता है। अपनी बेटी का दुख-दर्द माता-पिता के लिए असहनीय होता है। दूसरी ओर दूसरे घर से लाई गई बेटी बुराइयों का पिटारा होती है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि उसमें कोई अच्छाई ही नहीं होती। अपने मायके की गुणवन्ती बेटी ससुराल में नकारा कही जाती है। जब तब उसकी किसी भी गलती पर उसे अपमानित करने में, उस पर छींटाकशी करने में जब कोई कसर नहीं छोड़ी जाती, तो उसकी अच्छाइयों के लिए उसकी प्रशंसा करने में कंजूसी न दिखाएँ।
इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि ससुराल में आपकी बेटी को भी इसी प्रकार का दंश झेलना पड़ता होगा। अच्छा तो यही होता कि बहू को अपनी बेटी मानकर उसकी गलतियों को अनदेखा कर लेते। उसे प्यार से समझाया जा सकता है। आजकल बच्चे बहुत समझदार हैं, यदि उन्हें तर्कपूर्ण बात कही जाए तो वे उसे समझकर तत्क्षण मान लेते हैं।
बेटे की चाह में कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध कर बैठते हैं। बेटे को इसलिए महत्त्व दिया जाता है कि वह कुल को तारेगा, बुढ़ापे में माता-पिता की सेवा करेगा। यदि इस पर गहनता से विचार किया जाए तो यह मिथ भी टूटता हुआ नजर आएगा। लोग ऐसा कहते हैं कि शादी के बाद बेटा बहू का और अपनी ससुराल का हो जाता है। इसका कारण कोई नहीं तलाशना चाहता। हर समय बहू को कोसते रहेंगे तो घर में क्लेश रहेगा ही। बहू को बेटी मानकर यदि सम्मान दिया जाता तो शायद पारिवारिक बिखराव की स्थिति से बचा जा सकता है। अपवाद तो सर्वत्र उपलब्ध हो सकते हैं।
आजकल नौकरी के कारण बेटे अपने ही देश में अन्यत्र चले जाते हैं अथवा विदेश चले जाते हैं। यदि घर भी रहते हैं तो उनके कार्य में जाने का समय तो निश्चित होता है पर रात को वापिस आने का समय नहीं। इसलिए वे देर रात घर लौटते हैं। बेटे के पास अपने लिए तो समय नहीं होता, वह माता-पिता की क्या सेवा करेगा? हालाँकि बहू भी नौकरी या व्यापार करने वाली हो सकती है, फिर भी वह घर के सारे दायित्वों को पूर्ण करती हैं जिन्हें पुरुष नहीं कर पाता। जिस बहू को बदनाम किया जाता है, वही उनका सारा काम करती है। उनकी जरूरतों का ध्यान रखती है। किस समय उन्हें किस चीज की आवश्यकता हो सकती है या उन्हें किस समय पर क्या देना है? आदि।
घर में यदि सेवक या सेविका हो तो उसे घर के बुजुर्गों के लिए वह हिदायतें देती रहती है और फोन करके पूछती रहती है। उन्हें किस पर क्या देना है, उसे ध्यान रहता है। उनकी पसन्द-नापसन्द का भी उसे पता रहता है। जबकि घर के बेटे को इस विषय में प्रायः कोई जानकारी नहीं रहती। जिसे घर में भला-बुरा कहा जाता है, जिसकी बुराई करने का कोई अवसर नहीं छोड़ा जाता, सेवा तो वही करती है।
मेरा आप सभी सुधीजनों से अनुरोध है कि बेटी और बेटे में अन्तर करना छोड़ दें। यद्यपि बहुत से लोग इस विचार को मानते हैं, फिर भी अभी लम्बा रास्ता तय करना है। बहू भ्य आपके घर की शान और मान है, इसे सदा स्मरण रखिए। बहू यदि सन्तुष्ट रहेगी तो घर में सुख और शान्ति का वास रहेगा। अतः उसे यथोचित मान-सम्मान देकर अपनी बेटी मानें। यहाँ वहाँ उसकी बुराई करने से बचें।
चन्द्र प्रभा सूद
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