मनुष्य इस संसार में जन्म लेता है और फिर कुछ समय पश्चात वह अपनों को छोड़कर अचानक ही एक दिन सदा के लिए उनसे विदा ले लेता है। उसके लिए जीवन और मृत्यु की इस अबूझ पहेली को समझना या सुलझाना टेढ़ी खीर के समान है। उसे जब कभी मौका मिलता है, वह इस रहस्य को जानने, समझने का प्रयास करता रहता है। यह बात अलग है कि वह अपने इस प्रयास में कभी सफल नहीं हो पाता। इस विषय में सदा उसकी जिज्ञासा बनी रहती है।
श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्यों की पुनर्जन्म और कर्मसिद्धान्त विषयक जिज्ञासा को शान्त करते हुए स्पष्ट किया है-
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धा निवाशयात्।।
अर्थात जिस प्रकार वायु अपने साथ सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध को लेकर इधर-उधर वायुमण्डल में जाती है, उसी प्रकार जीव मृत्युपर्यन्त अपने संस्कारों को अपने साथ लेकर दूसरे शरीरों को धारण करता है।
गीता के इस श्लोक का हम अर्थ यही कर सकते हैं कि वायु हमारी जीवनी शक्ति है या प्राणदायिनी है। वह अपने साथ सुगन्ध या दुर्गन्ध को दूर तक ले जाती है। वायुमण्डल में वह दूर तक फैल जाती है। हमारे शरीर में रहने वाली जीवात्मा अपने साथ शुभाशुभ कर्मों को अपने साथ लेकर नए शरीर में प्रवेश करती है। वहाँ वह उन कर्मों के खट्टे-मीठे फलों का भोग करती है। कर्मफल के भोग से उसका बचना नामुमकिन होता है।
मनुष्य यह समझने की भूल करता है कि वह जो कुछ भी सुकर्म या दुष्कर्म करेगा, इस शरीर के छूटने के बाद वह इसी धरा पर रह जाएँगे, उसके साथ नहीं जा सकेंगे। मृत्यु होने का अर्थ मुक्ति नहीं होता। मुक्ति को पाने के लिए अष्टांग योग का कठोरता से पालन करना पड़ता है। कदम-कदम पर मोह-माया के आकर्षण अपना जाल बिछाकर फँसाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं, जिसमें वह फँस जाता है। मनीषी कहते हैं कि इस कारण जीव चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है, जब तक उसे मुक्ति नहीं मिल जाती। गीता कहती है कि जीव की मृत्यु तो होती ही नहीं। जिसे मनुष्य मृत्यु समझता है वह भ्रम मात्र है। यानी वह मात्र शरीर का परिवर्तन होता है यानी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करना होता है। जैसे मनुष्य बदरंग या कटे-फटे कपड़े बदलता है वैसे ही जीव रोगी या वृद्ध शरीर बदलता है। ऐसा भी भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से हमें समझाया है।
मृत्यु केवल भौतिक सम्बन्धों की होती है यानी सारे नाते-रिश्ते, भाई-बन्धु केवल श्मशान तक ही साथ निभाते हैं। उसके आगे की यात्रा जीव को स्वयं तय करनी होती है। उसकी गाढ़े पसीने से कमाई हुई सारी धन-सम्पत्ति, नौकर-चाकर, गाड़ी-बंगले इसी धरती पर रह जाते हैं। मनुष्य अपने साथ केवल अपने कर्मों की पूँजी लेकर जाता है जो किसी को दिखाई नहीं देती। उनको भोगे बिना उसे उनसे छुटकारा नहीं मिलता।
मनुष्य अपने भविष्य का निर्माण स्वयं ही करता है। अथवा यूँ कहें कि मनीषी कहते हैं मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। वह चाहे तो स्वर्ग के सारे सुख पा सकता है और अपनी मूर्खता से सब कुछ गँवा भी सकता है। वह मृत्युपर्यन्त इस क्षणभंगुर जीवन में भोग करते हुए अपने मनमाफिक शरीर का निर्माण कर सकता है जैसे एक दर्जी कपड़े को मनचाहा आकार देता है, एक मूर्तिकार अपनी कलाकृति या चित्रकार अपनी पेंटिंग को अपनी कल्पना का स्वरूप प्रदान कर सकता है। एक कुम्भकार अपने प्रयास से मिट्टी को मनचाहा रूप दे सकता है।
मनुष्य को चाहिए कि जो भी कार्य वह करना चाहता है, उन्हें अपने जीवनकाल में ही कर लेने चाहिए। मृत्यु आने पर उसे पल भर की मोहलत नहीं मिल सकती। अन्तकाल आने पर उसे प्रायश्चित करने की आवश्यकता ही न रहे। उसके पास अपनी योजनाओं को मूर्तरूप देने के लिए केवल जन्म और मृत्यु के बीच का समय ही उपलब्ध रहता है। उसे यह अवसर कदापि गँवाना नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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