ईश्वर के किसी रूप की उपासना यदि माँ के रूप में की जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। परमपिता परमात्मा की उपासना हर व्यक्ति अपनी तरह से करता है। मेरा यह मानना है कि माँ से बढ़कर और कौन है जो सन्तान के विषय उससे अधिक भली-भाँति समझता है।
इसलिए यदि मनुष्य परमेश्वर से अपनी निकटता और घनिष्ठता को बढ़ाना चाहता है तो स्वयं को बच्चे के समान मानकर माँ के रूप में ही उसकी पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
माँ अपनी सन्तान से बहुत अधिक स्नेह रखती है जिसे मापने का कोई पैमाना आज तक बना ही नहीं है। यद्यपि पिता भी बच्चे से बहुत प्यार करता है परन्तु किसी बात पर असहमत हो जाने पर वह बच्चे के साथ कठोर व्यवहार कर सकता है परन्तु माता कभी ऐसा नहीं कर पाती।
माता की कोमल भावनाएँ और सन्तान के प्रति उसका मोह उसे ऐसा नहीं करने देता। उसका भावुक हृदय सन्तान के लिए सदा पसीज जाता है और वह उसकी बड़ी-से-बड़ी गलती को भी क्षमा करके उसे अपने गले से लगा लेती है।
घर-परिवार में सभी सदस्यों के होते हुए भी बच्चा माता के सबसे अधिक करीब होता है। वह चाहता है कि उसकी माँ हमेशा उसके आसपास रहनी चाहिए। वह स्वयं चाहे दोस्तों के साथ खेलने के लिए घर से बाहर जाए, कहीं घूमने जाए अथवा विद्यालय जाए पर जब घर वापिस लौटे तो सबसे पहले उसे अपनी माँ ही दिखाई देनी चाहिए। यदि वह उसे न दिखाई दे तो वह अनमना हो जाता है, खाना भी नहीं खाएगा और किसी काम में उसका मन नहीं लगेगा।
माँ और बच्चे का सम्बन्ध ही ऐसा होता है कि माँ की अनुपस्थिति उसे बहुत खलती है। वह उसे अपनी आँखों के सामने न पाकर रोने लगता है। एक माँ भी अधिक समय तक अपने बच्चे से दूर नहीं रह सकती। यदि मजबूरी में कभी ऐसा करना पड़े तो उसका मन अपने बच्चे में ही लगा रहता है। उसकी की चिन्ता में परेशान रहती है।
माता का अपनी सन्तान से रिश्ता ही ऐसा होता है। शायद यही कारण है कि इन्सान आयु में कितना भी बड़ा हो जाए किसी भी समस्या के आने पर 'हाय माँ' ही कहता है। उसकी माता चाहे परलोक भी सिधार जाए तब भी माँ को याद करना नहीं भूलता।
बच्चे नालायक हो सकते हैं पर माता नहीं। वह उनसे अपना रिश्ता समाप्त नहीं कर सकती और न ही उनसे मुँह नहीं मोड़ सकती। इसीलिए शायद कहा है -
"पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कुमाता
नहीं हो सकती।"
यह विश्लेषण हमने इस भौतिक संसार की माता और उसकी सन्तान के सम्बन्ध में किया है। इस सम्पूर्ण संसार की जननी वह है जिसे हम जगज्जननी कहते हैं। यदि भौतिक माता की तरह हमारा जुड़ाव उस जगज्जननी से हो जाए तो हमारे इस जीवन की रूपरेखा ही बदल जाए।
उससे मिलने की तड़प ही हमें उसके करीब ले जा सकती है। क्योंकि वह सारे संसार की माता है, इसलिए वह स्वयं ही अपने सारे बच्चों का ध्यान रखती है। चाहे वे जलचर, नभचर, भूचर या फिर मनुष्य किसी भी रूप में हों। उसके लिए सभी जीव समान हैं। उसे यह सब बताने की आवश्यकता नहीं है। ये तो हम इन्सान ही हैं जो अपने दायित्वों को ठीक से नहीं निभा पाते, कोताही बरतते रहते हैं।
उस मालिक के बच्चे हम मनुष्य यदि उसका साथ सच्चे मन से चाहते हैं तो अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा। उस प्रभु के पास जाने के लिए अपने मानस को तैयार करना होगा। दुनिया के सारे व्यापार जब निस्पृह होकर, अपना दायित्व मानकर करेंगे, तब उनमें लिप्त नहीं होंगे और उसके प्रिय बन सकेंगे।
इस संसार में आने से पहले जब जीव माता के गर्भ में होता है तब वहाँ विद्यमान अंधकार से घबराता है और उस मालिक से प्रार्थना करता है कि अंधेरे से मुक्ति दे दो, दुनिया में जाकर तुम्हें नहीं भूलूँगा। पर होता इसके विपरीत है। संसार की चकाचौंध में जीव खो जाता है और उसे भूल जाता है। यदि हम इस दुनिया में आने के बाद उसे उसी तड़प से याद कर सकें तो इहलोक से विदा होने के बाद मुक्ति का मार्ग सुगम हो जाएगा। तब हमारे शरीर में विद्यमान आत्मा को उस परमात्मा में लीन होने से कोई नहीं रोक सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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