अच्छाई पर बुराई के प्रतीक विजयदशमी की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ -
विजयदशमी का त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है। हम सभी यह पर्व बड़े पारम्परिक तौर-तरीके व उत्साह से मनाते हैं और मिठाई भी खाते हैं। अब इस प्रश्न पर विचार करना है कि किस हद तक हम इस त्योहार को मनाने में सफल हो रहे हैं? क्या इस त्योहार को मनाने का वास्तव में हमें अधिकार है भी अथवा नहीं?
हर वर्ष दशहरे के दिन रावण का दहन करके हम आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। परन्तु जो रावण का प्रतीक बुराइयाँ या आसुरी शक्तियाँ हमारे अन्दर डेरा जमाए बैठी हैं उनके बारे में हम सजग भी हैं या नहीं- यह चिन्तन का विषय अवश्य है। हमारे अन्तस में विद्यमान दैवी शक्तियाँ उन आसुरी शक्तियों पर विजय पाने में समर्थ हो भी पाती हैं या नहीं, इस विषय पर भी मनन आवश्यक है।
रावण एक परम विद्वान व्यक्ति था। अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का प्रतिकार करने के लिए उसने भगवती सीता का अपहरण किया था। क्षणिक आवेश में उठाया गया उसका यह कदम उसके विनाश का कारण बन गया। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि अपने घर में न रखकर सीता माँ को उसने अशोक वाटिका में रखा। यह रावण की चरित्रगत विशेषता थी कि इतने समय तक अपनी कैद में रहने के पश्चात भी उसने माँ सीता का स्पर्श तक नहीं किया।
आज हम दिन-प्रतिदिन असहिष्णु बनते जा रहे हैं। सामाजिक मूल्यों और नैतिक जीवन मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। बलात्कारों की बढ़ती हुई संख्या इसी का ही परिणाम है। किसी को भी जान मार देना मानो शगल-सा बन गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आज इन्सानी जान का कोई मूल्य ही नहीं रह है। जरा सी कोई घटना घटी नहीं कि रेल, बस, कारों आदि को आग के हवाले कर देना मामूली-सी बात हो गई है। सरकारी कार्यालयों में तोड़फोड़ करना, उन्हें आग के सुपुर्द कर देने से पता नहीं कौन-सा आत्मिक सुख मिलता है, आज तक यह मेरी समझ में नहीं आया।
जब तक अपने हृदयों में विद्यमान कालुष्य को हम दूर नहीं करेंगे, तब तक ऐसी बुराइयों से मुक्त होना असम्भव होगा। ये बुराइयाँ सभ्य समाज के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। इनका दुष्परिणाम हम प्रतिदिन भुगत रहे हैं। समझने की बात यह भी है कि एक गलती करने वाले रावण को तो हम प्रतिवर्ष जलाते हैं। परन्तु उन रावणों का क्या होगा जो एक के बाद एक गलती करते जाते हैं और उसका प्रायश्चित भी नहीं करना चाहते।
हम मनुष्य अपने चेहरों पर मुखौटे लगाकर रखते हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे अन्तस में पंख फैलाकर बैठी बुराइयों को कोई दूसरा देख सके अथवा हमें हिकारत से देखे। कितना भी प्रयास क्यों न किया जाए वे प्रकट हो ही जाती हैं। उस समय मनुष्य दूसरों के समक्ष नजरें चुराता फिरता है।
अभी-अभी नवरात्रों के व्रत सम्पन्न हुए हैं। यदि हम हर वर्ष यह व्रत ले पाएँ कि इस वर्ष अपने अन्तस में विद्यमान अपनी एक बुराई को दूर करने का ईमानदारी से यत्न करेंगे, तभी इन नौ दिनों के व्रतों की सार्थकता है अन्यथा ये मात्र ढकोसला बनकर रह जाएँगे। इसी तरह यदि हर वर्ष हम अपने अन्दर पनपने वाली बुराइयों में से केवल एक बुराई का भी अन्त कर सकें तो धीरे-धीरे अपने अन्त:करण को शुद्ध करने में समर्थ हो सकेंगे।
मन के शुद्ध होने पर हमें यह दुनिया और भी खूबसूरत लगने लगेगी। ऐसा महसूस होगा कि हमारे चारों ओर का वातावरण स्वच्छ व उत्साहवर्धक हो गया है। यानी हमारे चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढेगा। हम और अधिक स्फूर्ति से जीवन में आगे बढ़ेंगे। इस तरह अपनी सोच में यदि हम बदलाव ला पाएँ तो इस धरा पर हमारा जन्म लेना सार्थक हो जाएगा और दशहरे के पर्व को मनाना भी समीचीन हो सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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