हृदय शब्द की व्याख्या करते हुए बृहदारण्यक उपनिषद् कहती है कि हमारा हृदय ही ब्रह्म है, यही प्रजापति है अर्थात् यही सब कुछ है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह हृदय इस मनुष्य जीवन का संचालक है। इसकी तीन सन्तानें हैं- देव, मनुष्य और असुर।
हृदय शब्द तीन अक्षरों से बना है- हृ द य। वैदिक व्याकरण में इनका अर्थ बताया है- हृ का अर्थ है 'हरति' अर्थात् लाना। द का अर्थ है 'ददाति' अर्थात् देना और य का अर्थ है 'याति' अर्थात् जाना।
जो इस रहस्य को समझ लेते हैं कि हृदय ही सब कुछ है यानि कि वही ब्रह्मा है, वही प्रजापति है। अपने और पराए सभी उसे उपहार लाकर देते हैं। जो इसे पूरी तरह जान लेता है वही स्वर्गलोक को जाता है। कहने का तात्पर्य है कि वह सभी प्रकार से सुखी रहता है।
हम सब जानते है कि हृदय मनुष्य के लिए कितना आवश्यक है। यह जब तक ठीक से कार्य करता रहता है, तब तक ही मनुष्य स्वस्थ रहता है। जहाँ इसमें विकार आया वहीं से परेशानी आरम्भ हो गई। यह लेता है, देता है और चलता है।
इसका कार्य रुधिर का लेना और देना होता है। यह शरीर से अशुद्ध रक्त को लेकर फेफड़ों द्वारा शुद्ध करके शरीर को वापिस लौटा देता है। इसी उद्देश्य को लेकर यह निरन्तर गतिमान् रहता है। यह न दिन देखता है और न रात, बस चलता ही रहता है। इस प्रकार हृदय शब्द के अर्थ से रुधिर की गति अथवा बल्ड सर्कुलेशन का भाव आ जाता है।
यदि यह हमारी तरह सोचने लगे कि वह चलते-चलते, अपना काम करते हुए थक गया है, अब उसे आराम करना चाहिए तो वहीं, उसी पल इस मनुष्य जीवन का अन्त हो जाता है। कहते हैं न कि मृतक का हार्ट फेल हो गया।
अभी ऊपर इसकी तीन सन्तानों की हमने चर्चा की थी। पहली सन्तान है देव। देव संयमी होते हैं। ये सदा ही मनुष्य को संयम करना सिखाते है, मर्यादा का पालन करने की शिक्षा देते हैं। ये मनुष्य को खानपान और आचार-व्यवहार आदि हर स्थान में जीवन को संतुलित रखने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। जो लोग अपनी जीवन शैली नियमानुसार चलाते हैं उन्हें दुखों और कष्टों का सामना अपेक्षाकृत कम करना पड़ता है। उनका खानपान ऋतु के अनुसार होता है, वे समय पर सोते हैं और जागते हैं। वे सदा स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हैं।
दूसरी सन्तान है मनुष्य। ये कभी देवों की तरह संयमी बन जाते हैं तो कभी असुरों की तरह क्रूर बन जाते हैं। इनका ढुलमुल रवैया इन्हें स्वयं का मित्र और शत्रु बना देता है। जब ये दैवीवृत्ति की तरह स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हैं तो अपने मित्र बन जाते हैं उस समय उनका शरीर नीरोग रहता है। परन्तु जब असुरों की तरह अपने प्रति लापरवाह हो जाते हैं तो सभी नियमों की अनदेखी करते हैं। तब शरीर रोगी हो जाता है और मनुष्य कष्ट पाता है। डाक्टरों के पास इलाज के लिए जाता हुआ धन व समय की बरबादी करता है।
इसकी तीसरी सन्तान हैं असुर। वे हर नियम को, हर बन्धन को तोड़ने के पक्षधर होते हैं। उनका वश चले तो सारे एक्सपेरिमेंट इसी जीवन में अपने शरीर पर कर डालें। मानव शरीर में जब आसुरी वृत्ति बलवती हो जाती है तब आँख, नाक, कान, जिह्वा आदि सभी इन्द्रियाँ बेलगाम घोड़ों की तरह ही अनियन्त्रित हो जाती हैं। सबकी मनमानी इस अमूल्य शरीर का सत्यानाश कर देती है।
खाने-पीने, सोने-जागने यानि कि आहार-विहार में हर तरह की लापरवाही हमारे हृदय की गति के लिए घातक हो जाती है। शरीर दिन-प्रतिदिन रोगों का घर बनता जाता है। एक समय ऐसा आता है जब मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करने लगता है कि वह इस शरीर से उसे मुक्त कर दे।
अपने इस हृदय रूपी ब्रह्म या प्रजापति को सम्मान देना हमारा कर्त्तव्य है। इसकी चिन्ता और सुरक्षा ही हमारे स्वस्थ जीवन की कुँजी है। इसलिए किसी भी प्रकार की असावधानी हमारे जीवन में सेंध लगा सकती है। इससे बचना चाहिए और सजग रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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