मन और बुद्धि की जंग अनवरत चलती रहती है। चञ्चल मन अपनी सुविधा के अनुसार मनुष्य को भागना चाहता है। दूसरी ओर बुद्धि क्योंकि विवेकशील होती है, वह मनुष्य को अपने में ठहराव लाने का सुझाव देती है। इन दोनों में किसकी बात मानी जाए, यह सबसे बड़ी समस्या मनुष्य के समक्ष आती है। उस समय उसे अच्छी तरह सोच-समझकर निर्णय लेना होता है। मन या बुद्धि में यदि परीक्षा की जाए तो समझ में आ सकता है कि कौन सही है और कौन गलत?
मानव मन उसे उच्छृंखलता की ओर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। वह दुनिया के नित नए आकर्षणों में फँसकर मनुष्य को बर्बाद कर देता है। दूसरी ओर उसकी बुद्धि उस पर अंकुश लगती रहती है। इसी कारण वह सही दिशा का चयन करके, उचित मार्ग पर चलकर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता है। मन और बुद्धि का यह टकराव जिस व्यक्ति को अपने मार्ग से डिगा नहीं पाता, वही वास्तव में सफल व्यक्ति कहलाता है।
एक दृष्टान्त पर विचार करते हैं। प्राचीनकाल में एक आश्रम में एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया, जिसमें विजेता को आश्रम के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार से सम्मानित किया जाना था। आश्रम के सभी शिष्य गुरु के आदेश से पण्डाल में एकत्रित हो गए। सेवक ने उनके सामने एक ऐसा रथ लाकर खड़ा कर दिया, जिसमें दो घोड़े बँधे हुए थे। रथ का मुँह उत्तर दिशा की ओर था जबकि दोनों घोड़े एक दूसरे की विपरीत दिशा में देख रहे थे।
सेवक रथ खड़ा करके जब चला गया तब गुरु ने शिष्यों से पूछा- "शिष्यो, तुम्हारे सामने एक रथ खडा है, जिसमें दो घोड़े बँधे हुए हैं। दोनों घोड़ों में से एक का मुँह पूर्व की आेर है जबकि दूसरे का पश्चिम की ओर। तुम्हें बताना है कि यदि सारथी रथ को आगे बढाएगा तो रथ किस दिशा में जाएगा?"
गुरु ने अपनी बात पूरी की तो एक शिष्य ने उत्तर दिया- "रथ पूर्व दिशा की ओर जाएगा।"
गुरूदेव ने पूछा- "कैसे?"
शिष्य ने इसका उत्तर दिया- "पूर्व दिशा का घोड़ा अधिक बलशाली है।"
गुरु ने अन्य शिष्यों से पूछा- "कोई और इस प्रश्न का उत्तर देना चाहेगा?"
दूसरे शिष्य ने कहा- "नहीं गुरुदेव, घोड़ा पूर्व दिशा की आेर नही बल्कि पश्चिम दिशा की ओर जाएगा क्योंकि रथ का झुकाव पश्चिम दिशा की ओर है।"
तभी तीसरे शिष्य ने कहा- "घोडा न पूर्व दिशा की ओर जाएगा, न ही पश्चिम दिशा की ओर, वह दक्षिण की ओर जाएगा।"
तीसरे शिष्य का उत्तर सुन कर गुरु जी व सभी अन्य शिष्यों को बहुत आश्यर्च हुआ। गुरु ने उससे पूछा- "तुम यह कैसे कह सकते हो?"
तीसरे शिष्य ने उत्तर दिया- "गुरुदेव ये घोड़े अपनी मर्जी के मालिक हैं। इसलिए जिस ओर इनका मन करेगा, ये उसी ओर बढ़ेंगे।"
तीसरे शिष्य का यह उत्तर सुनकर गुरु सहित वहाँ उपस्थित सभी शिष्य हंस पड़े।
गुरु किसी भी शिष्य के उत्तर से सन्तुष्ट नहीं दिखाई नहीं दिए। इसलिए उन्होंने फिर पूछा- "कोई और इस प्रश्न का उत्तर देना चाहेगा?"
तब वहाँ बैठे एक अन्य शिष्य ने पूछा- "गुरु जी रथ में कितने सारथी हैं?"
गुरुदेव ने उत्तर दिया- "रथ में केवल एक ही सारथी है।"
शिष्य ने कहा- "गुरुदेव, रथ में केवल एक ही सारथी है तो दोनों घोड़े उसी दिशा में जाएँगे जिस ओर सारथी उनको लेकर जाएगा क्योंकि दोनों घोड़े सारथी के अधीन हैं, न कि सारथी घोड़ों के।"
इससे यही स्पष्ट होता है कि जब तक बुद्धि रूपी सारथी इन्द्रिय रूपी घोड़ों को नियन्त्रण में नहीं रखेगा, तब तक मन रूपी लगाम अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाएगी। मनीषी मन को इन्द्रिय रूपी घोड़ों की लगाम मानते हैं और बुद्धि को सारथी। इसलिए जब बुद्धि मन को अपने वश में कर लेती है तभी इस शरीर रूपी रथ में बैठा आत्मा रूपी यात्री अपने गन्तव्य पर पहुँच सकता है। परमपिता परमात्मा में लीन होकर चौरासी लाख योनियों के जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होना ही आत्मा का निर्धारित लक्ष्य है।
चन्द्र प्रभा सूद
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