सभी भाषाओं की जननी, प्राचीनतम देवभाषा संस्कृत पर हम जितना भी मान करें, वह कम ही है। संस्कृत वर्णमाला में कुल 33 व्यञ्जन हैं। निम्न श्लोक में सभी व्यञ्जनों को अपने क्रमानुसार यथावत प्रयुक्त किया गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह श्लोक अर्थपूर्ण प्रस्तुति कर रहा है-
क: खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।
तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषाम्।।
अर्थात् पक्षियों के प्रति प्रेम, शुद्ध बुद्धि वाला, दूसरे का बल को हरने में निपुण, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल, निडर और महासागर का सर्जक कौन है? जिसे शत्रुओं से भी आशीर्वाद मिले हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस श्लोक में क्रमबद्ध व्यञ्जन मात्र सुन्दरता का प्रदर्शन ही नहीं कर रहे अपितु सार्थक अर्थ की अभिव्यक्ति भी करते हैं। ये सूत्रबद्ध व्यञ्जन काव्य की सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे हैं, जो वास्तव में कवि का प्रशंसनीय प्रयास है।
एक मित्र ने फ़ेसबुक पर यह श्लोक अंग्रेजी भाषा की वर्णमाला की तुलना करते हुए लिखा था कि अंग्रेजी के सारे वर्णों को क्रमबद्ध लिखने से कोई अर्थयुक्त शब्द नहीं बनता। मुझे खेद है कि उनका नाम मैं नोट नहीं कर पाई। मैं उनका धन्यवाद करती हूँ।
अब हम महाकवि भरवि विरचित एक अन्य श्लोक को देखते हैं। 'किरातार्जुनीयम्' महाकाव्य में महाकवि भारवि ने अपने पाठकों को चमत्कृत किया है। केवल एक 'न' व्यञ्जन को लेकर एक अद्भुत श्लोक की रचना की है। उनका काव्यकौशल सराहनीय है, इसमें कवि ने एक अर्थपूर्ण श्लोक हमारे लिए लिखा है-
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्।।
अर्थात् जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हो गया है, वह सच्चा मनुष्य नहीं है। इसी प्रकार अपने से दुर्बल को घायल करने वाला भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल नहीं हुआ, तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते। जो घायल मनुष्य को घायल करे, वह भी मनुष्य नहीं है।
महाकवि माघ ने 'शिशुपालवधम्' महाकाव्य में केवल दो वर्णों यानी 'भ' और 'र' को लेकर एक नवीन श्लोक की रचना की है, यह प्रयास अपने आप में अद्भुत व सराहनीय है-
भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।
भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।
अर्थात् धरा को भी वजन लगे ऐसे वजनदार, वाद्य यन्त्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले निडर हाथी ने अपने दुश्मन हाथी पर हमला किया।
केवल 'भ' और 'र' इन दोनों व्यञ्जनों का प्रयोग करके रचना करना वास्तव में बहुत ही कठिन कार्य है। कवि ने अपनी रचनाधर्मिता को बखूबी निभाया है। कवि का बुद्धिकौशल वाकई प्रशंसनीय हैं।
इन दोनों कवियों की प्रशस्ति में किसी कवि का लिखा हुआ यह श्लोक निश्चित ही द्रष्टव्य है-
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिन: पदललित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणा:।।
अर्थात महाकवि कालिदास की उपमा, महाकवि भारवि का अर्थ गौरव और महाकवि दण्डी का पद ललित्य बहुत प्रसिद्ध है। पर महाकवि माघ में ये तीनों गुण विद्यमान हैं।
इन महाकवियों द्वारा प्रयोग किए गए ये अनूठे काव्य शायद ही किसी अन्य भाषा में देखने को मिलें। धन्य हैं ऐसे महाकवि और धन्य है उनकी लेखनी। इन महाकवियों को शत शत नमन। ऐसे महान कवियों की स्तुति करते हुए निम्न श्लोक में कहा गया है-
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम्।।
अर्थात सत्कर्म करने वाले, काव्यशास्त्र में कुशल और कवियों में श्रेष्ठ व्यक्ति ही सही जीवन जीते हैं और विजयी होते हैं क्योंकि उन्हें अपने यश तथा शरीर की चिन्ता नहीं होती है और न ही वृद्धावस्था और मृत्यु का भय होता है।
माघ और भारवि जैसे महाकवि अपनी ऐसी अमूल्य रचनाओं के लिए सदा स्मरण किए जाते रहेंगे। इतिहास के पृष्ठों में इन दोनों का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। बस उन पन्नों को पलटो और एक झलक देख लो। अपने उत्कृष्ट काव्य रचना के कारण लोगों के हृदयों में इनका स्थान सदैव बना रहेगा। शब्दों के जादूगर अपने इन महान काव्यशास्त्रियों पर हमें गर्व है।
चन्द्र प्रभा सूद
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