सभी शास्त्र हमें ईश्वर की आराधना करने के लिए प्रेरित करते हैं। उनके अनुसार ईश्वर का नाम जपने के लिए कोई आयु नहीं होती। कुछ लोग कहते हैं बचपन हरि का नाम लेने के लिए नहीं होता। जब आयु आएगी तब देखा जाएगा। वे भूल जाते हैं कि जब माता के गर्भ में जीव अन्धकार और अकेलेपन से घबराता है तो वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसे इस कष्ट से मुक्त कर दे। दुनिया में जाने के बाद वह उसे सदा स्मरण करेगा। दूसरी ओर जब बच्चे को कोई कष्ट होता है तो उसे अपने इष्ट के स्थान पर माथा टेकने के लिए ले जाते हैं। जब बच्चे को डर लगता है तो उसे प्रभु का नाम स्मरण करने के लिए कहते हैं।
उसी बच्चे को यदि प्रभु से प्यार हो जाता है अर्थात बालक भक्त प्रह्लाद या ध्रुव भक्त की तरह वह ईश्वर की उपासना में अपना मन लगाना चाहता है या बालक की तरह ज्ञान की खोज करना चाहता है तो भगवान बुद्ध यानी बालक सिद्धार्थ के पिता शुद्बोधन की तरह उसे प्रभु से विमुख करने के उपाय किए जाते हैं, सांसारिक बन्धनों की ओर उन्मुख कर दिया जाता है। अथवा भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप की तरह उसे कठोर यातनाएँ दी जाती हैं। कहने का तात्पर्य है कि हम दोहरा चरित्र जीते हैं।
युवावस्था में मनुष्य सोचता है अभी कान-धन्धा कर लूँ, परिवार की आवश्यकताएँ पूर्ण कर लूँ, बच्चे सेटल हो जाएँ तब ईश्वर का ध्यान भी कर लेंगे। अभी उम्र नहीं हुई ईश्वर का भजन करने की। यहाँ फिर मनुष्य के चहरे पर लगाए मुखौटे को देख सकते हैं। जब सन्तान चाहिए, तरक्की चाहिए या कोई अन्य माँग रखनी हो तो उस मालिक की चौखट पर नाक रगड़ता है। अपने धन-वैभव को पाने के लिए वह मालिक की उपासना कर सकता है यानी स्वार्थपूर्ति का साधन उसके लिए वह मालिक बन जाता है। बहुत बार वह दुनिया में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उसका सर्वोत्तम भक्त होने का आडम्बर भी करता है।
सारी आयु ईश्वर का नाम न जपने वाले ईश्वर की उपासना वृद्धावस्था में आकर भी नहीं कर सकते। सारी आयु उसका ध्यान नहीं किया तो बुढ़ापे में उसमें मन नहीं रम सकता। उस समय शरीर अशक्त हो जाता है, इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगती हैं। मन उदास, हताश व निराश रहने लगता है। इसलिए प्रभु भजन के लिए कोई भी आयु नहीं होती। अतः सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते यानी चौबीसों घण्टे जब चाहे उसको अपने सच्चे मन से पुकार सकते हैं। वह जगज्जननी अपनी बाँहें पसारे हमारी प्रतीक्षा कर रही है।
वास्तव में ईश्वर की आराधना बहुत ही चमत्कृत करने वाली है। सच्चे मन से उसका स्मरण करने पर इन्सान का मन हलका हो जाता है। मनुष्य के मन से नकारात्मक विचार दूर हो जाते हैं, उसके स्थान पर सकारात्मक विचारों का उदय होता है। मनुष्य के पूर्वजन्म कृत दुख-कष्ट दूर तो नहीं हो सकते पर उन्हें सहन करने की शक्ति मिलती है। मन शान्त होने लगता है, एक विशेष प्रकार का आनन्द-सा छाया रहता है। ऐसा लगता है मानो सारे गम कोसों दूर चले गए हैं। मनुष्य का मान-सम्मान घर-परिवार व समाज में बढ जाता है।
उसके मन में नई स्फूर्ति एवं ताजगी का अहसास होता है। ईश्वर की ऐसी कृपा होती है कि धीरे-धीरे उसके बिगड़े हुए सारे काम बनने लगते हैं। ईश स्मरण से मनुष्य को मानसिक बल मिलता है। उसके सारे सपने समयनुसार साकार होने लगते हैं। अन्ततः वह मोक्ष के मार्ग की ओर प्रशस्त होने लगता है। फिर जन्म-मरण के इन बन्धनों से मुक्त होकर मनुष्य को प्रभु की शरणस्थली मिलती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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