श्रवण करने का अर्थात सुनने का बहुत ही महत्व है। वेद ग्रन्थों को श्रुति ग्रन्थ कहा जाता है। इसका कारण है कि श्रवण परम्परा से ही ये ग्रन्थ गुरुओं से शिष्यों तक आए। उन्होंने सुनकर ही इन वेदमन्त्रों का अभ्यास किया और इन्हें कण्ठस्थ किया। यदि शिष्य गुरु द्वारा पढ़ाए गए मन्त्रों को सुनने का अभ्यास न करते तो यह अनमोल खजाना कब का तिरोहित हो गया होता। आज प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी बहुत एडवांस हो गई है, इसलिए आकर्षक छपाई वाले ये महान ग्रन्थ हमारे घरेलू पुस्तकालयों में विद्यमान हैं। जिनका घर में होना बहुत गौरव की बात कहलाती है।
एक व्यक्ति जो अपनी ही अपनी बात बोलता रहता है और किसी दूसरे की बात नहीं सुनता उसे लोग मूर्ख कहते हैं। अपनी बात दूसरों के समक्ष अवश्य रखनी चाहिए। उसका भी एक तरीका होता है। दूसरे की बात सुनने पर बहुत कुछ सीखने-समझने को मिलता है। आपकी बात पर यदि कोई सुझाव देता है तो उसे ध्यान से सुनना चाहिए। यदि वह उपयोगी लगे तो उसे मान लेना चाहिए, इसमें कोई बुराई नहीं है।
मनुष्य को गम्भीर होना चाहिए। जिस मनुष्य में गम्भीरता नहीं उसका मूल्य दो कौड़ी का भी नहीं होता। उसे एक कुशल श्रोता बनना चाहिए। तभी वह अच्छे-बुरे, सत्य-झूठ आदि के विषय में विचार कर सकता है। मनीषी समझते हुए कहते हैं-
सुनो सबकी करो मन की।
अर्थात जो भी व्यक्ति अपना समझकर कुछ बताता है या सुझाव देता है, उन सबको ध्यान से सुनो। उनमें जो जी अपने अनुकूल लगे उस पर विचार किया जा सकता है। और फिर जब क्रियान्वयन करने का समय हो तब अपने भले-बुरे का विश्लेषण कर लेना चाहिए।
इस श्रवण का महत्व बताते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा है-
श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्।
श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्।।
अर्थात श्रवण करने से धर्म का ज्ञान होता है, सुनकर कुबुद्धि का त्याग किया जाता है, सुनने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और श्रवण करने से मुक्ति होती है।
आचार्य चाणक्य का यह मानना हैं कि श्रवणशील मनुष्य के धर्मज्ञान में वृद्धि होती है। इसके कारण मनुष्य की बुद्धि की जड़ता दूर होती है। मनुष्य अपनी कुबुद्धि का त्याग कर देता है और सदाचरण की ओर प्रवृत्त होता है। श्रवण करने से उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है जो उसके जीवन को बदलकर रख देती है। जब मनुष्य को धर्मज्ञान होगा, उसकी बुद्धि का शुद्धिकरण हो जाएगा, उसे सांसारिक और आध्यात्मिक ज्ञान में अन्तर करना आ जाएगा तो धीरे-धीरे वह मुक्ति की राह पर अग्रसर हो जाएगा। इस प्रकार वह शीघ्र ही मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है।
मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना होता है। जब तक उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिल जाती, तब तक उसे चौरासी लाख योनियों कर फेर में पड़े रहना पड़ता है। बार-बार इस संसार में अलग-अलग रूपों में वह जन्म लेता है। अन्ततः मुक्त होकर असीम शान्ति को लम्बे समय तक प्राप्त करता है।
जिस प्रकार अच्छे वक्ता की सभी लोग प्रशंसा करते हैं, उसी प्रकार अच्छा श्रोता भी प्रशंसा का पात्र होता है। एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना बुद्धिमत्ता नहीं कहलाती। मनुष्य को दूसरे की बात को सुनकर अपने हृदय में रहस्य की तरह रखना चाहिए। कभी भी किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। ऐसा श्रवणशील विवेकी व्यक्ति सबका प्रिय बन जाता है और विश्वासपात्र भी कहा जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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