संयम का मानव जीवन में बहुत महत्त्व होता है। जो मनुष्य अपने जीवन में संयम का पालन करता है वह हर क्षेत्र में सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता है। तन, मन व धन इन सब का संयम हर व्यक्ति के जीवन में बहुत आवश्यक होता है। इसके बिना तो जीवन यापन कठिन हो जाता है और कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करते हुए मनुष्य को रोते-झींकते जीना पड़ता है।
तन यानी शरीर को संयमित रखने के लिए उचित आहार-विहार की आवश्यकता होती है। आवश्यकता से अधिक खाना, सोना, आलस करना आदि दोषों से शरीर अस्वस्थ हो जाता है। महाकवि कालिदास ने कहा था-
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'
अर्थात शरीर के स्वस्थ होने पर ही हम कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं। शरीर क स्वस्थ रहने पर ही मनुष्य अपने घर-परिवार, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि दायित्वों का निर्वहण कर सकता है। यदि तन का संयम न किया जाए तो उसके विकारग्रस्त या रोगी होने में पलभर का समय भी नहीं लगता। उसे फिर से स्वस्थलाभ करने में धन व समय दोनों की बरबादी होती है।
मन के संयम से तन और मन दोनों संयमित रहते हैं। मन के निरोध से हमारी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा) और कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, मुँह, गुदा व उपस्थ) हमारे नियंत्रण में रहती हैं। इनके वश में होने से मनुष्य का भटकाव नहीं होता। वह सद् कार्यों की ओर प्रवृत्त होता है। ऐसा करने से शरीर तंदरुस्त तो रहता ही है मन भी प्रसन्न तथा संतुष्ट रहता है।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि इस मन को अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है। यदि इसे वश में नहीं करेंगे तो यह हमें अनावश्यक लालचों में डूबा देता है जिसका भुगतान हमें समाज में अपमानित होकर करना पड़ता है।
धन का संयम बहुत आवश्यक है। यदि धन को अंधाधुंध खर्च किया जाए तब मनुष्य को कंगाल बनने में पलभर का भी समय नहीं लगता। इसकी सार्थकता तभी कहलाती है जब उसे घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने तथा दान देने में व्यय किया जाए अन्यथा दिन-रात परिश्रम करके कमाया गया यह धन नष्ट हो जाता है।
इसके विपरीत यदि धन को व्यसनों में बर्बाद किया जाए तो यह धन का दुरुपयोग होता है। हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि धन का संयम बहुत आवश्यक है।
हम कह सकते हैं कि अपनी इन्द्रियों को वश में करना संयम कहलाता है। यदि उन्हें वश में न किया जाए तो वे हमें अपने चंगुल में फँसा लेती हैं। जब मनुष्य उनके जाल में फँस जाता है तो वे उसे दिन में तारे दिखा देती हैं। उनके मकड़जाल में फँसकर मनुष्य का पतन निश्चित होता है। फिर मनुष्य का उत्थान कठिन हो जाता है।
अपने जीवन को सुलझाने में मृत्यु पर्यन्त यत्न करने पर भी कामयाबी मिलेगी या नहीं कहना मुश्किल होता है।
बचपन में संयमित रह कर विद्या अध्ययन करने वाला योग्य बनकर समाज में अपना एक स्थान बनाता है। अपने घर-परिवार व समाज के दायित्वों को भली-भाँति पूर्ण करके शांति से जीवन व्यतीत करता है।
संयम के महत्त्व को समझकर जीवन में उसे अपना कर ही हम अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं अन्यथा हर कदम पर असफलता मुँह बाये प्रतीक्षा करती मिलेगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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