योग बहुत गहन और गम्भीर विषय है। यह मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। पातञ्जलि विरचित योगशास्त्र का मानना है - योगश्चित्तवृति: निरोध:। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों को नियन्त्रित करता है। योग हमारे ऋषि-मुनियों के द्वारा दी गई एक अमूल्य देन है। योग अपने आप में एक समूचा दर्शन है। आजकल कुछ लोग इसे उछल कूद करने का माध्यम समझ रहे हैं जो उचित नहीं है। टीवी के सामने खड़े होकर या सीडी देखकर हाथ-पैरों को हिला लेना मात्र योग बन गया है। जिसको आज ये आधुनिक लोग योगा की संज्ञा देते हैं वास्तव में वह योग नहीं है वे योगासन कहलाते हैं। योग एक बहुत गंभीर विषय है। इसकी अनुपालना करना इतना सरल कार्य नहीं है। महर्षि पातंजलि ने योगशास्त्र में योग के आठ अंग बताए हैं- यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्रणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठों का पालन करते हुए मनुष्य समाधि के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करता है। इनमें पहले पाँच अंगों को बहिरंग कहते हैं और अंतिम तीन को अंतरंग। इन आठ अंगो के कारण ही इसे अष्टांगयोग कहते हैं। मनुष्य का सारा जीवन व्यतीत हो जाता है यम और नियम का पालन करते हुए पर उनकी पूर्ण रूप से अनुपालना नहीं कर पाते। जिस प्रकार नींव के बिना यदि घर बनाया जाए तो वह बहुत दिन तक टिका नहीं रह सकता उसी प्रकार यम और नियम के बिना समाधि तक पहुँच पाना असंभव होता है। योग की पहली सीढ़ी यम है इसके पालन के बिना नियम की अनुपालना नहीं हो सकती। इन दोनों के पालन से अंत:करण पवित्र होता है। इनके पालन के बिना प्राणायाम भली-भाँति होना कठिन है।
अब इन अंगों की संक्षिप्त जानकारी लेते हैं - 1. यम- महर्षि पातंलि योगदर्शन में कहते हैं- अहिंसासत्यमस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा: अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह न करना) ये पाँच यम हैं। मन, वचन व कर्म से इनका पालन करना चाहिए। सारा जीवन ईमानदार कोशिश करने पर भी इनका पालन असंभव-सा है। 2. नियम- योगशास्त्र के अनुसार नियम हैं- शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्चप्रणिधानानि नियमा:। अर्थात शौच(तन और मन की स्वच्छता), संतोष, तप, स्वाध्याय और प्रणिधान (सर्वस्व ईश्वर को अर्पित करना)। पाँचों नियमों का पालन इन पाँचों यमों के साथ-साथ ही करना होता है। 3. आसन- योगाभ्यास करते समय उपयुक्त आसन का चुनाव करके बैठना चाहिए। साधक प्रायः पद्मासन में ही बैठते हैं। आसन में बैठते समय तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- 1. मेरुदंड, ग्रीवा और मस्तक को बिल्कुल सीधा रखना चाहिए। 2. नासिकाग्र पर या भृकुटि में दृष्टि रखनी चाहिए। 3. यदि आलस्य न सताए तो आँखें मूँदकर बैठ सकते हैं। इस प्रकार योगाभ्यास किया जाता है। 4. प्राणायाम- श्वास के आरोह व अवरोह का निरोध करना प्राणायाम कहलाता है। इसी बात को योगशास्त्र कहता है- तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। देश, काल और संख्या के संबंध से बाह्य (कुम्भक), आभ्यन्तर(रेचक) और स्तम्भन वृत्ति(रोकना) वाले तीनों प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते हैं। प्राणायाम सिद्ध होने पर विवेक को कुंठित करने वाले अज्ञान का नाश होता है और मन स्थिर होता है। 5. प्रत्याहार- अपने-अपने विषय के संयोग से हट जाने और इन्द्रियों का चित्त के रूप में अवस्थित होना प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं और साधक बाह्य ज्ञान से दूर होता जाता है। 6. धारणा- योगशास्त्र कहता है-
देशबन्धश्चित्तस्य धारणा अर्थात चित्त को किसी भी एक ध्येय स्थान पर स्थित करने को धारणा कहते हैं। 7. ध्यान- ध्यान के विषय में योगशास्त्र ने कहा है- तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। अर्थात ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता को ध्यान कहते हैं। 8. समाधि- एकाग्र ध्यान धीरे-धीरे समाधि की ओर प्रवृत्त करता है। तब ध्याता, ध्यान और ध्येय एक हो जाते हैं। स्थूल पदार्थ में समाधि 'निर्वितर्क' कहलाती है और सूक्ष्म में समाधि 'निर्विचार' कहलाती है। यही समाधि ईश्वर विषयक होने से मुक्ति प्रदान करती है। इस संक्षिप्त विवेचन से यह समझ आता है कि योग एक बहुत ही गहन विषय है। इसके प्ररंभिक अंगों यम और नियम का पालन आजीवन करना होता है। मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाने वाला है। इसकी अनुपालना करके ही जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिलती है और मनुष्य चौरासी लाख योनियों के फेर से बच जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद Email : cprabas59@gmail.com Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html Twitter : http//tco/86whejp